Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 26 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते | स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ||१४-२६||

Transliteration

māṃ ca yo.avyabhicāreṇa bhaktiyogena sevate . sa guṇānsamatītyaitānbrahmabhūyāya kalpate ||14-26||

Word-by-Word Meaning

माम्Me
and
यःwho
अव्यभिचारेणunswerving
भक्तियोगेनwith devotion
सेवतेserves
सःhe
गुणान्Gunas
समतीत्यcrossing beyond
एतान्these
ब्रह्मभूयायfor becoming Brahman
कल्पतेis fit.Commentary A Sannyasi or even a Karma Yogi who serves Him (the Isvara

📖 Translation

English

14.26 And he who serves Me with unswerving devotion, he, crossing beyond the alities, is fit for becoming Brahman.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.26।। जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

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When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Unwavering devotion and single-minded focus on a higher ideal or purpose are the direct path to transcending limitations, achieving inner freedom, and realizing ultimate fulfillment.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.26 माम् Me? च and? यः who? अव्यभिचारेण unswerving? भक्तियोगेन with devotion? सेवते serves? सः he? गुणान् Gunas? समतीत्य crossing beyond? एतान् these? ब्रह्मभूयाय for becoming Brahman? कल्पते is fit.Commentary A Sannyasi or even a Karma Yogi who serves Him (the Isvara? Narayana Who abides in the hearts of all beings) with unswerving devotion? is endowed with the knowledge of the Self. He then goes beyond the three alities and becomes fit to become Brahman? for attaining liberation or release from birth and death.He attains to the knowledge of the Self through the grace and mercy of the Lord. To these everharmonious devotees worshipping Me in love? I give the Yoga of discrimination by which they come unto Me. Out of pure compassion for them? dwelling within their Self? I destroy the ignorancorn darkness by the shining lamp of wisdom. (Chapter X. 10 and 11)Avyabhicharini Bhakti The devotee constantly meditates on the Lord. He has exclusive devotion to the Lord alone. He has no other thought save that of his Lord. His mind is filled with the thoughts of the Lord. His thoughts flow towards the Lord like the continuous flow of oil from one vessel to another. There is Sajatiya Vritti Pravaha? i.e.? unbroken flow of the one thought of God. There is total abandonment of thoughts of sensual objects. Constant thinking of God is the sure means for crossing beyond the three alities of Nature.

Shri Purohit Swami

14.26 And he who serves Me and only Me, with unfaltering devotion, shall overcome the Qualities, and become One with the Eternal.

Dr. S. Sankaranarayan

14.26. Whosoever serves Me alone with an unfailing devotion-Yoga, he, transcending these Strands, turns to be the Brahman.

Swami Adidevananda

14.26 And he who, with unswerving Bhakti Yoga, serves Me, he, crossing beyond the Gunas, becomes fit for the state of Brahman.

Swami Gambirananda

14.26 And he who serves Me through the unswerving Yoga of Devotion, he, having gone beyond these alities, alifies for becoming Brahman.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.26।। धर्म का व्यावहारिक शास्त्रीय ग्रंथ होने के कारण गीता में केवल सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया गया है। इसमें प्रत्येक सिद्धान्त के विवेचन के पश्चात् उस साधन का वर्णन किया गया है? जिसके अभ्यास से एक साधक सिद्धावस्था को प्राप्त हो सकता है।जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है ईश्वर से परम प्रीति भक्ति कहलाती है। प्रिय वस्तु में हमारा मन सहजता से रमता है। हमारा सम्पूर्ण स्वभाव हमारे विचारों से पोषित होता है। यथा विचार तथा मन? यह नियम है। इसलिये एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है।यह सत्य है कि परमात्मा का अखण्ड चिन्तन एक समान निष्ठा एवं प्रखरता के साथ संभव नहीं होता है। जिस स्थिति में आज हम अपने को पाते हैं? उसमें यह सार्मथ्य नहीं है कि मन को दीर्घकाल तक ध्यानाभ्यास में स्थिर कर सकें। साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् एक उपाय बताते हैं? जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण बनाये रख सकते हैं। और वह उपाय है सेवा। तृतीय अध्याय में यह वर्णन किया जा चुका है कि ईश्वरार्पण की भावना से किए गए सेवा कर्म ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा? या भजन ही पर्याप्त नहीं है। गीताचार्य की अपने भक्तों से यह अपेक्षा है कि वे अपने धर्म को केव्ाल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखें। उन्हें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन? कार्य क्षेत्र और लोगों के साथ व्यवहार में भी धर्म का अनुसरण करें।अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवासाधना मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है। तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना के योग्य बन जाता है। ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती।उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है। जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है।यह साधक स्वयं ब्रह्म कैसे बनता बनता है सुनो

Swami Ramsukhdas

।।14.26।। व्याख्या --   [यद्यपि भगवान्ने इसी अध्यायके उन्नीसवेंबीसवें श्लोकोंमें गुणोंका अतिक्रमण करनेका उपाय बता दिया था? तथापि अर्जुनने इक्कीसवें श्लोकमें गुणातीत होनेका उपाय पूछ लिया। इससे यह मालूम होता है कि अर्जुन उस उपायके सिवाय गुणातीत होनेके लिये दूसरा कोई उपाय जानना चाहते हैं। अतः अर्जुनको भक्तिका अधिकारी समझकर भगवान् उनको गुणातीत होनेका उपाय भक्ति बताते हैं।]मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते -- इन पदोंमें उपासक? उपास्य और उपासना -- ये तीनों आ गये हैं अर्थात् यः पदसे उपासक? माम् पदसे उपास्य और अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते पदोंसे उपासना आ गयी है।अव्यभिचारेण पदका तात्पर्य है कि दूसरे किसीका भी सहारा न हो। सांसारिक सहारा तो दूर रहा? ज्ञानयोग? कर्मयोग आदि योगों(साधनों) का भी सहारा न हो और भक्तियोगेन पदका तात्पर्य है कि केवल भगवान्का ही सहारा हो? आश्रय हो? आशा हो? बल हो? विश्वास हो। इस तरह अव्यभिचारेण पदसे दूसरोंका आश्रय लेनेका निषेध करके भक्तियोगेन पदसे केवल भगवान्का ही आश्रय लेनेकी बात कही गयी है।सेवते पदका तात्पर्य है कि अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा भगवान्का भजन करे? उनकी उपासना करे? उनके शरण हो जाय? उनके अनुकूल चले।स गुणान्समतीत्यैतान् -- जो अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है? उसको गुणोंका अतिक्रमण करना नहीं पड़ता? प्रत्युत भगवान्की कृपासे उसके द्वारा स्वतः गुणोंका अतिक्रमण हो जाता है (गीता 12। 67)।ब्रह्मभूयाय कल्पते -- वह गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र (अधिकारी) हो जाता है। भगवान्ने जब यहाँ भक्तिकी बात बतायी है? तो फिर भगवान्को यहाँ ब्रह्मप्राप्तिकी बात न कहकर अपनी प्राप्तिकी बात बतानी चाहिये थी। परन्तु यहाँ ब्रह्मप्राप्तिकी बात बतानेका तात्पर्य यह है कि अर्जुनने गुणातीत होने(निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्ति) का उपाय पूछा था। इसलिये भगवान्ने अपनी भक्तिको? ब्रह्मप्राप्तिका उपाय बताया।दूसरी बात? शास्त्रोंमें कहा गया है कि भगवान्की उपासना करनेवालेको ज्ञानकी भूमिकाओंकी सिद्धिके लिये दूसरा कोई साधन? प्रयत्न नहीं करना पड़ता? प्रत्युत उसके लिये ज्ञानकी भूमिकाएँ अपनेआप सिद्ध हो जाती हैं। उसी बातको लक्ष्य करके भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरा सेवन करनेवालेको ब्रह्मप्राप्तिका पात्र बननेके लिये दूसरा कोई साधन नहीं करना पड़ता? प्रत्युत वह अपनेआप ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है। परन्तु वह भक्त ब्रह्मप्राप्तिमें सन्तोष नहीं करता। उसका तो यही भाव रहता है कि भगवान् कैसे प्रसन्न हों भगवान्की प्रसन्नतामें ही उसकी प्रसन्नता हो���ी है। तात्पर्य यह निकला कि जो केवल भगवान्के ही परायण है? भगवान्में ही आकृष्ट है? उसके लिये ब्रह्मप्राप्ति स्वतःसिद्ध है। हाँ? वह ब्रह्मप्राप्तिको महत्त्व दे अथवा न दे -- यह बात दूसरी है? पर वह ब्रह्मप्राप्तिका अधिकारी स्वतः हो जाता है।तीसरी बात? जिस तत्त्वकी प्राप्ति ज्ञानयोग? कर्मयोग आदि साधनोंसे होती है? उसी तत्त्वकी प्राप्ति भक्तिसे भी होती है। साधनोंमें भेद होनेपर भी उस तत्त्वकी प्राप्तिमें कोई भेद नहीं होता। सम्बन्ध --   उपासना तो करे भगवान्की और पात्र बन जाय ब्रह्मप्राप्तिका -- यह कैसे इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.26।। जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.26।।ब्रह्मवत्प्रकृतिवद्भगवत्प्रियत्वं ब्रह्मभूयम्। न तु तावत्प्रियत्वं? किन्तु प्रियत्वमात्रम्।बद्धा वापि तु मुक्ता वा न रमावत्प्रिया हरेः इति पाद्मे। भूयाय भवाय।

Sri Anandgiri

।।14.26।।प्रश्नद्वयमेवं परिहृत्य तृतीयं प्रश्नं परिहरति -- अधुनेति। मच्छब्दस्य संसारिविषयत्वं व्यावर्तयति -- ईश्वरमिति। तत्रैव नारायणशब्दान्मूर्तिभेदो व्यावर्त्यते। तस्य ताटस्थ्यं व्यवच्छिनत्ति -- सर्वेति। मुख्यामुख्याधिकारिभेदेन विकल्पः। भक्तियोगस्य यादृच्छिकत्वं व्यवच्छेत्तुमव्यभिचारेणेत्युक्तम्। तद्व्याचष्टे -- नेति। भजनं परमप्रेमा स एव युज्यतेऽनेनेति योगः। सेवते पराक्चित्ततां विना सदानुसंदधातीत्यर्थः। स भगवदनुकृतसम्यग्धीसंपन्नो विद्वाञ्जीवन्नेवेत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।14.26।।किञ्च भक्तिमार्गीयस्य गुणातीतत्वं केवलगुणातीतभगवद्भक्त्येति तथाह -- मां चेति। मां पुरुषोत्तमं अव्यभिचारेण सर्वात्मना ऐकान्तिकेन भक्तियोगेन स्नेहयोगेन सेवते? स गुणानेतानतीत्य ब्रह्मभूयायाक्षरब्रह्मभावाय कल्पते। एतेन अव्यभिचारिभक्तिमर्यादया सेवतामपि ब्रह्मात्मप्राप्तिरुक्तानुषङ्गिकी अव्यभिचारिभक्तियोगोक्तिः। यथा च श्रुतौ -- यो वै स्वां देवतामतियजते प्रस्थायै देवतायै च्यवते न परीप्राप्नोति स पापीयान्भवति तमेवैकं जानथात्मानं अन्या वाचो विमुञ्चथ अमृतस्यैष सेतुः [मुं.उ.2।2।5] इति। अत्रात्मत्वेन ज्ञानं स्नेहभक्तिविषयत्वेन एवकारेण व्यभिचारिणीभक्तिव्यावृत्तिरनूद्यते अयमेवामृतस्य त्रिगुणात्मकरूपमोक्षस्य सेतुरित्यर्थः।

Sridhara Swami

।।14.26।।कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तत इत्यस्य प्रश्नस्योत्तरमाह -- मांचेति। चशब्दोऽवधारणार्थः। मामेव परमेश्वरं श्रीनारायणमव्यभिचारेणैकान्तभक्तियोगेन यः सेवते स एतान्गुणान्समतीत्य सम्यगतिक्रम्य ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभावाय मोक्षाय कल्पते योग्यो भवति।

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