Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 18 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः | जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||१४-१८||

Transliteration

ūrdhvaṃ gacchanti sattvasthā madhye tiṣṭhanti rājasāḥ . jaghanyaguṇavṛttisthā adho gacchanti tāmasāḥ ||14-18||

Word-by-Word Meaning

ऊर्ध्वम्upwards
गच्छन्तिgo
सत्त्वस्थाःin Sattva seated
मध्येin the middle
तिष्ठन्तिdwell
राजसाःthe Rajasic
जघन्यगुणवृत्तिस्थाःabiding in the function of the lowest Guna
अधःdownwards
गच्छन्तिgo

📖 Translation

English

14.18 Those who are seated in Sattva go upwards; the Rajasic dwell in the middle; and the Tamasic, abiding in the function of the lowest Guna, go downwards.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.18।। सत्त्वगुण में स्थित पुरुष उच्च (लोकों को) जाते हैं; राजस पुरुष मध्य (मनुष्य लोक) में रहते हैं और तमोगुण की अत्यन्त हीन प्रवृत्तियों में स्थित तामस लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivating a Sattvic approach in work means prioritizing integrity, excellence, continuous learning, and service. This leads to sustainable growth, deep satisfaction, and positive impact, signifying an 'upward' trajectory in one's professional journey. Rajasic work, driven by ambition and material gain, can bring success but also stress and constant striving, keeping one 'in the middle.' Tamasic work, characterized by procrastination, apathy, or unethical shortcuts, leads to stagnation and decline, pulling one 'downwards.'

🧘 For Stress & Anxiety

For mental health, a Sattvic mindset fosters clarity, peace, resilience, and a balanced perspective through practices like mindfulness and ethical living, leading to an 'upward' trajectory in well-being. A Rajasic state often involves restlessness, anxiety, and burnout from constant striving, keeping one 'in the middle' of fluctuating moods. Tamasic tendencies like depression, apathy, and delusion drag one 'downwards' into worsening mental health and despair.

❤️ In Relationships

Sattvic relationships are built on compassion, mutual respect, genuine support, and open communication, fostering growth and deep fulfillment, representing an 'upward' movement. Rajasic relationships, often transactional, competitive, or possessive, can be dynamic but also lead to conflict and conditional love, remaining 'in the middle.' Tamasic relationships involve neglect, manipulation, deceit, or abuse, which are destructive, draining, and pull all involved 'downwards' into suffering.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Your predominant inner qualities dictate your life's trajectory; cultivate Sattva to ascend towards clarity, purpose, and genuine fulfillment.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.18 ऊर्ध्वम् upwards? गच्छन्ति go? सत्त्वस्थाः in Sattva seated? मध्ये in the middle? तिष्ठन्ति dwell? राजसाः the Rajasic? जघन्यगुणवृत्तिस्थाः abiding in the function of the lowest Guna? अधः downwards? गच्छन्ति go? तामसाः the Tamasic.Commentary Those who abide in Sattva become the lords of heaven after giving up the physical body. The Rajasic are rorn on this earth as human beings. The Tamasic go downwards? i.e.? they will be born in the wormbs of cattle and beasts. They may take their birth amongst the lowest grades of human beings. The lowest grades of human beings are only brutes though they have assumed human form. Their actions are brutal. Therefore it is not necessary for them to enter into animal incarnation.Man identifies himself with Nature on account of the force of ignorance or illusory knowledge and gets attached to the alities of Nature. This is the cause of his birth in the wombs of high or low creatures. He feels? I am happy? miserable or deluded? on account of the attachment to the Gunas.The nature of the Gunas? their functions? how they bind a man to the Samsara? the effects of each Guna when it is predominant? and the plane reached by the man when he is under the influence of a particular Guna are described in the previous verses. Now the Lord describes in the following verse that liberation comes when one knows Him Who is above the three Gunas.

Shri Purohit Swami

14.18 When Purity is in the ascendant, the man evolves; when Passion, he neither evolves nor degenerates; when Ignorance, he is lost.

Dr. S. Sankaranarayan

14.18. Those who are established in the Sattva, go upward; the persons given to the Rajas, remain in the middle [state]; those who are given to the Tamas, being established in the tendencies of bad alities, go downwards.

Swami Adidevananda

14.18 Those who rest in Sattva rise upwards; those who abide in Rajas remain in the middle; and those, abiding in the tendencies of Tamas go downwards.

Swami Gambirananda

14.18 People who conform to sattva go higher up; those who conform to rajas stay in the middle; those who conform to tamas, who conform to the actions of the lowest ality, go down.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.18।। विकास के सोपान के तीन पाद हैं। न्यूनतम विकास की अवस्था में वनस्पति और पशु जगत् हैं। बुद्धि और प्रतिभा से सम्पन्न मनुष्य मध्य में स्थित है और वेदों से ज्ञात होता है कि स्वर्ग के देवतागण मनुष्य से उच्चतर अवस्था में रहते हैं। यहाँ विकास का अर्थ है अनुभवों का विशाल क्षेत्र और ज्ञान? विक्षेपों की न्यूनता और बुद्धि की प्रखरता का होना। विकास को नापने का मापदण्ड प्राणियों के द्वारा अनुभव की गई सुख? शान्ति और आनन्द की मात्रा है।इस दृष्टि से पाषाण का विकास शून्य माना जायेगा। तत्पश्चात् विकास की श्रेष्ठतर अवस्थाओं का क्रम है वनस्पति? पशु? मनुष्य और देवता। निसन्देह प्रखर बुद्धि युक्त मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ प्राणी है किन्तु उसकी,भी देशकाल की सीमाएं होती हैं। इन सीमाओं के टूट जाने पर मनुष्य देवताओं की श्रेष्ठतर योनि प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ? दो मंजिलों की एक इमारत है। दूसरी मंजिल पर स्थित कमरे में पहँचने के लिये जो सोपान बना है? वह दो भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में कुछ पायदानों को चढ़ने के पश्चात् मध्य में एक स्थान है? जहाँ से घूमकर सोपान के दूसरे भाग पर चढ़ना पड़ता है। जो लोग सबसे नीचे खड़े हैं? उन्हें विकास के निम्नस्तर पर मानें और जो मध्यस्थान में खड़े है वे उच्चतर स्थिति में हैं? जबकि सोपान के दूसरे भाग को चढ़कर जो लोग वहाँ हैं? वे उच्चतम अवस्था में हैं। सबसे नीचे हैं वनस्पति और पशु मध्य में है मनुष्य और उससे उच्चतर स्थिति में हैं देवतागण।ध्यान रहे कि इन तीनों में से कोई भी उस आराम और सुखसुविधाओं से पूर्ण कमरे में नहीं पहुँचा है। मध्य में स्थित मनुष्य को उच्चतर या निम्नतर स्थिति में जाने की स्वतंत्रता है। इस चित्र को यदि हम भलीभांति समझ लेते हैं तो हिन्दू दर्शनशास्त्र में वर्णित विकास के सिद्धान्त को हमने किसी सीमा तक समझ लिया है यह माना जा सकता है। यहाँ विकास का माप दण्ड प्रत्येक विकसित प्राणी के द्वारा अभिव्यक्ति की गयी चैतन्य की मात्रा है।सत्त्वस्थ पुरुष उच्च लोकों को प्राप्त होते हैं जो लोग विवेक? विचार? यथार्थ निर्णय और आत्मसंयम का शुद्ध जीवन जीते हैं? उनमें सत्त्वगुण की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। ऐसे शान्त? रचनात्मक और शक्तिशाली पुरुष की प्रगति उच्चतर लोक की ओर होती है।कामना और विक्षेप? महत्त्वाकांक्षा और उपलब्धि से पूर्ण रजोगुणी स्वभाव के लोग बारम्बार मनुष्य लोक को तब तक प्राप्त होते रहते हैं? जब तक वे आवश्यक चित्तशुद्धि नहीं प्रप्त कर लेते हैं।प्रमाद? मोह और अज्ञान जैसी हीन प्रवृत्तियों में रमने वाले जीव अपना अधपात करा लेते हैं।मरणोपरान्त भी जीव के अस्तित्व की अखण्डता का वर्णन करते समय भगवान् श्रीकृष्ण ने जीव की गति पर पड़ने वाले त्रिगुणों के प्रभाव को भी दर्शाया था। उपर्युक्त श्लोक उसी का सारांश है। परन्तु फिर संसार से मुक्ति कहाँ है रज्जुस्वरूप ये तीनों गुण हमें देह और उसके दुखों? मन और उसके विक्षेपों? बुद्धि और उसके स्पन्दनों और उसके परिच्छेदों से बांध देते हैं। इस संसार बन्धन से मुक्त होकर अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का अनुभव हमें कब होगाअब तक त्रिगुणों के स्वरूप? लक्षण तथा मरणोपरान्त जीव की गति पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है। परन्तु यह सब हमारे बन्धनों के कारणों का ही वर्णन है।प्रकृति में स्थित पुरुष ही जीव कहलाता है। अनित्य जगत् का अनुभव? निराशाओं के दुख यही सब जीव का संसार है। त्रिगुणों से अतीत होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।अत्यधिक ज्वर से पीड़ित रोगी के मस्तक और पीठ में असहनीय पीड़ा होती है। यह पीड़ा रोग का लक्षण है। ज्वर के उतरने पर भी रोगी को कष्ट होता रहता है। उस रोग के लक्षणों से सर्वथा मुक्त होकर जब उस पुरुष को पूर्व की भाँति स्वास्थ्य और शक्ति प्राप्त हो जाती है? केवल तभी उसे हम पूर्ण स्वस्थ कह सकते हैं। उसी प्रकार? वास्तविक मोक्ष तीनों गुणों से अतीत होकर अपने आनन्दस्वरूप में स्थित हो जाना है।अब? सम्यक् दर्शन से मोक्ष किस प्रकार प्राप्त होता है उसका वर्णन करते है

Swami Ramsukhdas

।।14.18।। व्याख्या --   ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः -- जिनके जीवनमें सत्त्वगुणकी प्रधानता रही है और उसके कारण जिन्होंने भोगोंसे संयम किया है तीर्थ? व्रत? दान आदि शुभकर्म किये हैं दूसरोंके सुखआरामके लिये प्याऊ? अन्नक्षेत्र आदि चलाये हैं सड़कें बनवायी हैं पशुपक्षियोंकी सुखसुविधाके लिये पेड़पौधे लगाये हैं गौशालाएँ बनवायी हैं? उन मनुष्योंको यहाँ सत्त्वस्थाः कहा गया है। जब सत्त्वगुणकी प्रधानतामें ही ऐसे मनुष्योंका शरीर छूट जाता है? तब वे सत्त्वगुणका सङ्ग होनेसे? सत्त्वगुणमें आसक्ति होनेसे स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें चले जाते हैं। उन लोकोंका वर्णन इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें उत्तमविदां अमलान् लोकान् पदोंसे किया गया है। ऊर्ध्वलोकोंमें जानेवाले मनुष्योंको तेजस्तत्त्वप्रधान शरीरकी प्राप्ति होती है।मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः -- जिन मनुष्योंके जीवनमें रजोगुणकी प्रधानता होती है और उसके कारण जो शास्त्रकी मर्यादामें रहते हुए भी स���ग्रह करना और भोग भोगना ऐशआराम करना पदार्थोंमें ममता? आसक्ति रखना आदिमें लगे रहते हैं? उनको यहाँ राजसाः कहा गया है। जब रजोगुणकी प्रधानतामें ही अर्थात् रजोगुणके कार्योंके चिन्तनमें ही ऐसे मनुष्योंका शरीर छूट जाता है? तब वे पुनः इस मृत्युलोकमें ही जन्म लेते हैं। यहाँ उनको पृथ्वीतत्त्वप्रधान मनुष्यशरीरकी प्राप्ति होती है।यहाँ तिष्ठन्ति पद देनेका तात्पर्य है कि वे राजस मनुष्य अभी जैसे इस मृत्युलोकमें हैं? मरनेके बाद वे पुनः मृत्युलोकमें आकर ऐसे ही बन जाते हैं अर्थात् जैसे पहले थे? वैसे ही बन जाते हैं। वे अशुद्ध आचरण नहीं करते? शास्त्रकी मर्यादा भङ्ग नहीं करते? प्रत्युत शास्त्रकी मर्यादामें ही रहते हैं और शुद्ध आचरण करते हैं,परन्तु पदार्थों? व्यक्तियों आदिमें राग? आसक्ति? ममता रहनेके कारण वे पुनः मृत्युलोकमें ही जन्म लेते हैं।जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः -- जिन मनुष्योंके जीवनमें तमोगुणकी प्रधानता रहती है और उसके कारण जिन्होंने प्रमाद आदिके वशमें होकर निरर्थक पैसा और समय बरबाद किया है जो आलस्य तथा नींदमें ही पड़े रहे हैं आवश्यक कार्योंको भी जिन्होंने समयपर नहीं किया है जो दूसरोंका अहित ही सोचते आये हैं जिन्होंने दूसरोंका अहित किया है? दूसरोंको दुःख दिया है जिन्होंने झूठ? कपट? चोरी? डकैती आदि निन्दनीय कर्म किये हैं? ऐसे मनुष्योंको यहाँ जघन्यगुणवृत्तिस्थाः कहा गया है। जब तमोगुणकी प्रधानतामें ही अर्थात् तमोगुणके कार्योंके चिन्तनमें ही ऐसे मनुष्य मर जाते हैं? तब वे अधोगतिमें चले जाते हैं।अधोगतिके दो भेद हैं -- योनिविशेष और स्थानविशेष। पशु? पक्षी? कीट? पतङ्ग? साँप? बिच्छू? भूतप्रेत आदि योनिविशेष अधिगति हैं और वैतरिणी? असिपत्र? लालाभक्ष? कुम्भीपाक? रौरव? महारौरव आदि नरकके कुण्ड स्थानविशेष अधोगति है। जिनके जीवनमें सत्त्वगुण अथवा रजोगुण रहते हुए भी अन्तसमयमें तात्कालिक तमोगुण बढ़ जाता है? वे मनुष्य मरनेके बाद योनिविशेष अधोगतिमें अर्थात् मूढ़योनियोंमें चले जाते हैं (गीता 14। 15)। जिनके जीवनमें तमोगुणकी प्रधानता रही है और उसी तमोगुणकी प्रधानतामें जिनका शरीर छूट जाता है? वे मनुष्य मरनेके बाद स्थानविशेष अधोगतिमें अर्थात् नरकोंमें चले जाते हैं (गीता 16। 16)। तात्पर्य यह हुआ कि सात्त्विक? राजस अथवा तामस मनुष्यका अन्तिम चिन्तन और हो जानेसे उनकी गति तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार ही होगी? पर सुखदुःखका भोग उनके कर्मोंके अनुसार ही होगा। जैसे -- कर्म तो अच्छे हैं? पर अन्तिम चिन्तन कुत्तेका हो गया? तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार वह कुत्ता बन जायगा परन्तु उस योनिमें भी उसको कर्मोंके अनुसार बहुत सुखआराम मिलेगा। कर्म तो बुरे हैं? पर अन्तिम चिन्तन मनुष्य आदिका हो गया? तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार वह मनुष्य बन जायगा परन्तु उसको कर्मोंके फलरूपमें भयंकर परिस्थिति मिलेगी। उसके शरीरमें रोगहीरोग रहेंगे। खानेके लिये अन्न? पीनेके लिये जल और पहननेके लिये कपड़ा भी कठिनाईसे मिलेगा।सात्त्विक गुणको बढ़ानेके लिये साधक सत्शास्त्रोंके पढ़नेमें लगा रहे। खानापीना भी सात्त्विक करे? राजसतामस खानपान न करे। सात्त्विक श्रेष्ठ मनुष्योंका ही सङ्ग करे? उन्हींके सान्निध्यमें रहे? उनके कहे अनुसार साधन करे। शुद्ध? पवित्र तीर्थ आदि स्थानोंका सेवन करे जहाँ कोलाहल होता हो? ऐसे राजस स्थानोंका और जहाँ अण्डा? माँस? मदिरा बिकती हो? ऐसे तामस स्थानोंका सेवन न करे। प्रातःकाल और सायंकालका समय सात्त्विक माना जाता है अतः इस सात्त्विक समयका विशेषतासे सदुपयोग करे अर्थात् इसे भजन? ध्यान आदिमें लगाये। शास्त्रविहित शुभकर्म ही करे? निषिद्ध कर्म कभी न करे राजसतामस कर्म कभी न करे। जो जिस वर्ण? आश्रममें स्थित है? उसीमें अपनेअपने कर्तव्यका ठीक तरहसे पालन करे। ध्यान भगवान्का ही करे। मन्त्र भी सात्त्विक ही जपे। इस प्रकार सब कुछ सात्त्विक करनेसे पुराने संस्कार मिट जाते हैं और सात्त्विक संसार (सत्त्वगुण) बढ़ जाते हैं। श्रीमद्भागवतमें गुणोंको बढ़ानेवाले दस हेतु बताये गये हैं -- आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च।ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।(11। 13। 4)शास्त्र? जल (खानपान)? प्रजा (सङ्ग)? स्थान? समय? कर्म? जन्म? ध्यान? मन्त्र और संस्कार -- ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी? राजसी हों तो रजोगुणकी और तामसी हों तो तमोगुणकी वृद्धि करती हैं।विशेष बातअन्तसमयमें रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला मनुष्य मनुष्यलोकमें जन्म लेता है (14। 15) और रजोगुणकी प्रधानतावाला मनुष्य मरकर फिर इस मनुष्यलोकमें ही आता है (14। 18) -- इन दोनों बातोंसे यही सिद्ध होता है कि इस मनुष्यलोकके सभी मनुष्य रजोगुणवाले ही होते हैं सत्त्वगुण और तमोगुण इनमें नहीं होता। अगर वास्तवमें ऐसी बात है? तो फिर सत्त्वगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला (14। 14) और सत्त्वगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य ऊँचे लोकोंमें जाता है (14। 18) तथा तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला (14। 15) और तमोगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य अधोगतिमें जाता है (14। 18) सत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं (14। 5) यह सारा संसार तीनों गुणोंसे मोहित है (7। 13) सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीन प्रकारके कर्ता कहे जाते हैं (18। 26 -- 28) यह सम्पूर्ण त्रिलोकी त्रिगुणात्मक है (18। 40)? आदि बातें भगवान्ने कैसी कही हैंइस शङ्का समाधान यह है कि ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी प्रधनाता तो है? पर साथमें रजोगुणतमोगुण भी रहते हैं। इसलिये देवताओंके भी सात्त्विक? राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अतः सत्त्वगुणकी प्रधानता होनेपर भी उसमें अवान्तर भेद रहते हैं। ऐसे ही मध्यगतिमें रजोगुणकी प्रधानता होनेपर भी साथमें सत्त्वगुणतमोगुण रहते हैं। इसलिये मनुष्योंके भी सात्त्विक? राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता है? पर साथमें सत्त्वगुणरजोगुण भी रहते हैं। इसलिये पशु? पक्षी आदिमें तथा भूत? प्रेत? गुह्यक आदिमें और नरकोंके प्राणियोंमें भी भिन्नभिन्न स्वभाव होता है। कई सौम्य स्वभावके होते हैं? कई मध्यम स्वभावके होते हैं और कई क्रूर स्वभावके होते हैं। तात्पर्य है कि जहाँ किसी भी गुणके साथ सम्बन्ध है? वहाँ तीनों गुण रहेंगे ही। इसलिये भगवान्ने (18। 40 में) कहा है कि त्रिलोकीमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है? जो तीनों गुणोंसे रहित हो।ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी प्रधानता? रजोगुणकी गौणता और तमोगुणकी अत्यन्त गौणता रहती है। मध्यगतिमें रजोगुणकी प्रधानता? सत्त्वगुणकी गौणता और तमोगुणकी अत्यन्त गौणता रहती है। अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता? रजोगुणकी गौणता और सत्त्वगुणकी अत्यन्त गौणती रहती है। तात्पर्य है कि सत्त्व? रज और तम -- तीनों गुणोंकी प्रधानतावालोंमें भी अधिक? मध्यम और कनिष्ठमात्रामें प्रत्येक गुण रहता है। इस तरह गुणोंके सैकड़ोहजारों सूक्ष्म भेद हो जाते हैं। अतः गुणोंके तारतम्यसे प्रत्येक प्राणीका अलगअलग स्वभाव होता है।जैसे भगवान्के द्वारा सात्त्विक? राजस और तामस कार्य होते हुए भी वे गुणातीत ही रहते हैं (7। 13)? ऐसे ही गुणातीत महापुरुषके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें सात्त्विक? राजस और तामस वृत्तियोंके आनेपर भी वह गुणातीत ही रहता है (14। 22)। अतः भगवान्की उपासना करना और गुणातीत महापुरुषका सङ्ग करना -- ये दोनों ही निर्गुण होनेसे साधकको गुणातीत करनेवाले हैं। सम्बन्ध --   पाँचवेंसे अठारहवें श्लोकतक प्रकृतिके कार्य गुणोंका परिचय देकर अब आगेके दो श्लोकोंमें स्वयंको तीनों गुणोंसे अतीत अनुभव करनेका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.18।। सत्त्वगुण में स्थित पुरुष उच्च (लोकों को) जाते हैं; राजस पुरुष मध्य (मनुष्य लोक) में रहते हैं और तमोगुण की अत्यन्त हीन प्रवृत्तियों में स्थित तामस लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.18।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।14.18।।सात्त्विकादिज्ञानकर्मफलान्युक्त्वानुक्तसंग्रहार्थं सामान्येनोपसंहरति -- किञ्चेति। वक्ष्यमाणफलद्वारापि सत्त्वादिज्ञानमित्यर्थः। सत्त्वगुणस्य वृत्तं शोभनं ज्ञानं कर्म वा तत्र तिष्ठन्तीति तथा। राजसा रजोगुणनिमित्ते ज्ञाने कर्मणि वा निरताः।

Sri Vallabhacharya

।।14.18।।तैर्गतिभेदमाह -- ऊर्ध्वं गच्छन्तीति। ब्रह्मलोकपर्यन्तमपि मोक्षं च। राजसास्तु मध्ये ततोऽधरस्थाने लोभस्य च तत्र निरूपितत्वात्। जघन्योऽधमो गुणस्तमोरूपः? तस्य वृत्तिः प्रमादमोहादिः? तत्र तेन वा स्थिता अधो गच्छन्ति। ततोऽधोभागरूपं जघन्यत्वेन निरूपितं स्थानमतलादि -- यथाऽसुराणां वैरोचनादीनाम् -- तत्र स्थितिः। नीचयोन्यादिषु वा नरकादौ यान्तीति।

Sridhara Swami

।।14.18।। इदानीं सत्त्वादिवृत्तिशीलानां फलभेदमाह -- ऊर्ध्वमिति। सत्त्वस्थाः सत्त्ववृत्तिप्रधाना ऊर्ध्वं गच्छन्ति। सत्त्वोत्कर्षतारतम्यादुत्तरोत्तरशतगुणानन्दान्मनुष्यगन्धर्वपितृदेवादिलोकान्सत्यलोकपर्यन्तान्प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। राजसास्तु तृष्णाद्याकुला मध्ये तिष्ठन्ति मनुष्यलोक एवोत्पद्यन्ते। जघन्योऽतिनिकृष्टस्तमोगुणस्तस्य वृत्तिः प्रमादमोहादिस्तत्र स्थिता अधो गच्छन्ति। तमोवृत्तितारतम्यात्तामिस्रादिषु निरयेषूत्पद्यन्ते।

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