Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 16 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Karma and Consequence

Sanskrit Shloka (Original)

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् | रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ||१४-१६||

Transliteration

karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam . rajasastu phalaṃ duḥkhamajñānaṃ tamasaḥ phalam ||14-16||

Word-by-Word Meaning

कर्मणःof action
सुकृतस्य(of) good
आहुः(they) say
सात्त्विकम्Sattvic
निर्मलम्pure
फलम्the fruit
रजसःof Rajas
तुverily
फलम्the fruit
दुःखम्pain
अज्ञानम्ignorance
तमसःof inertia

📖 Translation

English

14.16 The fruit of good action, they say, is Sattvic and pure, verily the fruit of Rajas is pain, and ignorance is the fruit of Tamas.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.16।। शुभ कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है; रजोगुण का फल दु;ख और तमोगुण का फल अज्ञान है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach work with a focus on quality, ethical practices, and genuine contribution (Sattvic). Seek knowledge and skill for their own sake, aiming for collective benefit, leading to deep job satisfaction, professional growth, and a positive reputation. Beware of work driven solely by ambition, competition, or the relentless pursuit of external rewards (Rajasic), as it often brings stress, dissatisfaction, and an endless cycle of desires. Avoid work characterized by laziness, negligence, or unethical means (Tamasic), which leads to poor performance, stagnation, and a lack of foresight.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate actions rooted in selflessness, mindfulness, and a desire for inner purity (Sattvic). Engaging in activities that bring genuine good to yourself and others fosters inner peace, clarity, and mental resilience, significantly reducing stress. Recognize that much stress stems from actions driven by insatiable desires, attachment to outcomes, and constant striving (Rajasic); letting go of these can alleviate anxiety and restlessness. Guard against mental states induced by inaction, apathy, or misguided indulgence (Tamasic), which can lead to confusion, depression, and a lack of motivation.

❤️ In Relationships

Build relationships on principles of mutual respect, genuine care, honest communication, and selfless giving (Sattvic), fostering deep trust, harmony, and lasting bonds. Be aware of relationships where expectations, control, competition, or personal gain are dominant (Rajasic), as these often lead to conflict, jealousy, and pain. Avoid relationships characterized by neglect, manipulation, deceit, or emotional apathy (Tamasic), as such interactions breed ignorance of others' feelings, resentment, and ultimately lead to broken connections and isolation.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The quality of your actions determines the quality of your life's outcomes: purity and knowledge from good deeds, pain from desire-driven efforts, and ignorance from inertia. Choose wisely.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.16 कर्मणः of action? सुकृतस्य (of) good? आहुः (they) say? सात्त्विकम् Sattvic? निर्मलम् pure? फलम् the fruit? रजसः of Rajas? तु verily? फलम् the fruit? दुःखम् pain? अज्ञानम् ignorance? तमसः of inertia? फलम् the fruit.Commentary Good action Sattvic action. The fruit of good action is both happiness and,knowledge.They The wise.Rajas means Rajasic action as this verse deals with action. The fruit of Rajasic action is bitter. Rajasic action brings pain? disappointment and dissatisfaction. Rajasic activity leads to greed. When the Rajasic man tries to gratify his original desires? new desires crop up. This opens the door to greed.Tamas Tamasic action? unrighteous deeds or sin (Adharma). There is no knowledge within and no foresight.

Shri Purohit Swami

14.16 They say the fruit of a meritorious action is spotless and full of purity; the outcome of Passion is misery, and of Ignorance darkness.

Dr. S. Sankaranarayan

14.16. The fruit of good action, they say, is spotless and is of the Sattva; but the fruit of the Rajas is pain, and the fruit of the Tamas is ignorance.

Swami Adidevananda

14.16 The fruits of a good deed, they say, is pure and is of the nature of Sattva. But the fruit of Rajas is pain; and the fruit of Tamas is ignorance.

Swami Gambirananda

14.16 They say that the result of good work is pure and is born of sattva. But the result of rajas is sorrow; the result of tamas is ignorance.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.16।। इस श्लोक में संभाषण कुशल भगवान् श्रीकृष्ण पूर्व के श्लोकों में कथित विषय को ही साररूप से वर्णन करते हैं। प्रत्येक गुण के प्रवृद्ध होने पर जो फल प्राप्त होते हैं उनका निर्देश यहाँ एक ही स्थान पर किया गया है।शुभ कर्मों का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है। सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होगा कि अन्तकरण का विचार ही समस्त कर्मों का जनक है विचार बोये गये बीज हैं? तो कर्म हैं अर्जित की गयी उपज। घासपात के बीजों से मात्र घास ही उत्पन्न होगी वैसे ही अशुभ संकल्पों से अशुभ कर्म ही होंगे। बाह्य जगत् में व्यक्त हुए ये अशुभ कर्म दुष्प्रवृत्तियों का संवर्धन करते हैं और इस प्रकार मन के विक्षेप शतगुणित हो जाते हैं।यदि कोई पुरुष सेवा और भक्ति? स्नेह और दया? क्षमा और करुणा का शान्त? सन्तुष्ट? प्रसन्न और पवित्र जीवन जीता है? तो निश्चय ही ऐसा जीवन उसके सात्विक स्वभाव का ही परिचायक है। यह तथ्य जैसे सिद्धान्तत सत्य है वैसे ही लौकिक अनुभव के द्वारा भी सिद्ध होता है। ऐसे आदर्श जीवन जीने वाले पुरुष को अवश्य ही अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है।यहाँ यह प्रश्न सम्भव हो सकता है कि यदि वर्तमान जीवन में कोई व्यक्ति अत्यन्त अधपतित है? तो किस प्रकार वह अपना उद्धार प्रारम्भ कर सकता है। यदि कर्म विचारों की अभिव्यक्ति हैं? और अन्तकरण में स्थित विचारों का स्वरूप अशुभ है? तो ऐसे व्यक्ति के विचारों के आमूल परिवर्तन की अपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं विश्व के सभी धर्मों में अपनी विधि और निषेध की भाषा में इस प्रश्न का उत्तर एक मत से यही दिया गया है कि सत्य के साधकों? भगवान् के भक्तों और संस्कृति के समुपासकों को सदाचार और नैतिकता का आदर्श जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए। वैचारिक परिवर्तन का यह प्रथम चरण है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन को अनुशासित करना और विचारों के स्वरूप को परिवर्तित करना सरल कार्य नहीं है किन्तु कर्मों के प्रकार को परिवर्तित करना और अपने बाह्य आचरण और व्यवहार को संयमित करना अपेक्षाकृत सरल कार्य है। इसलिए? सदाचार और अनुशासित व्यवहार आत्मोत्थान की महान् योजना के प्रारम्भिक चरण माने गये हैं। सदाचार के पालन से शनैशनै सद्विचारों का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है।यही कारण है कि सभी राष्ट्रों की संस्कृतियों में बालकों से कुछ नियमों के पालन का आग्रह किया जाता है? जैसे श्रेष्ठजनों का आदर? आज्ञाओं का पालन? असत्य का त्याग? शास्त्रों का स्वाध्याय? शिक्षा? स्वच्छता आदि। जब बालक से इन नियमों का पालन करने को कहा जाता है? तब सम्भवत उन्हें ये सब नियम क्रूर नियम प्रतीत होते हैं? जिनका पालन करते हुए उन्हें जीने के लिए बाध्य किया जाता है। तथापि? दीर्घकाल की अवधि में अनजाने ही ये नियम बालकों के विचारों को अनुशासित करते हैं।सदाचार से मन सात्विक और निर्मल बन जाता है। इससे प्राप्त होने वाले फल? मनप्रसाद? न्यूनतम विक्षेप? चित्त की एकाग्रता? श्रद्धा? भक्ति? जिज्ञासा इत्यादि है। विकार और विक्षेप ये मन की अशुद्धियां हैं? जो अशुभ कर्मों से और अधिक प्रवृद्ध होती हैं। सत्कर्म अपने स्वभाव से ही मनोद्वेगों को नष्ट करके मन को शान्त और प्रसन्न करते हैं।रजोगुण का फल दुख और तमोगुण का फल अज्ञान है।पूर्वोक्त विवेचन के प्रकाश में भगवान् के इस कथन को समझना कठिन नहीं है। सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों का लक्षण क्रमश विवेक? विक्षेप और आवरण है। अत साधक का अधिक से अधिक प्रयत्न सत्वगुण में स्थिति की प्राप्ति के लिए होना चाहिए क्योंकि सक्रिय शान्ति की स्थिति ही सत्त्व है? जो मनुष्य के आन्तरिक जीवन का रचनात्मक क्षण होता है।इन गुणों से क्या उत्पन्न होता है सुनो

Swami Ramsukhdas

।।14.16।। व्याख्या --   [वास्तवमें कर्म न सात्त्विक होते हैं? न राजस होते हैं और न तामस ही होते हैं। सभी कर्म क्रियामात्र ही होते हैं। वास्तवमें उन कर्मोंको करनेवाला कर्ता ही सात्त्विक? राजस और तामस होता है। सात्त्विक कर्ताके द्वारा किया हुआ कर्म सात्त्विक? राजस कर्ताके द्वारा किया हुआ कर्म राजस और तामस कर्ताके द्वारा किया हुआ कर्म तामस कहा जाता है।]कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् -- सत्त्वगुणका स्वरूप निर्मल? स्वच्छ? निर्विकार है। अतः सत्त्वगुणवाला कर्ता जो कर्म करेगा? वह कर्म सात्त्विक ही होगा क्योंकि कर्म कर्ताका ही रूप होता है। इस सात्त्विक कर्मके फलरूपमें जो परिस्थिति बनेगी? वह भी वैसे ही शुद्ध? निर्मल? सुखदायी होगी।फलेच्छारहित होकर कर्म करनेपर भी जबतक सत्त्वगुणके साथ कर्ताका सम्बन्ध रहता है? तबतक उसकी,सात्त्विक कर्ता संज्ञा होती है और तभीतक उसके कर्मोंका फल बनता है। परन्तु जब गुणोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? तब उसकी सात्त्विक कर्ता संज्ञा नहीं होती और उसके द्वारा किये हुए कर्मोंका फल भी नहीं बनता? प्रत्युत उसके द्वारा किये हुए कर्म अकर्म हो जाते हैं।रजसस्तु फलं दुःखम् -- रजोगुणका स्वरूप रागात्मक है। अतः रागवाले कर्ताके द्वारा जो कर्म होगा? वह कर्म भी राजस ही होगा और उस राजस कर्मका फल भोग होगा। तात्पर्य ह��� कि उस राजस कर्मसे पदार्थोंका भोग होगा? शरीरमें सुखआराम आदिका भोग होगा? संसारमें आदरसत्कार आदिका भोग होगा? और मरनेके बाद स्वर्गादि लोकोंके भोगोंकी प्राप्ति होगी। परन्तु ये जितने भी सम्बन्धजन्य भोग हैं? वे सबकेसब दुःखोंके ही कारण हैं -- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते (गीता 5। 22) अर्थात् जन्ममरण देनेवाले हैं। इसी दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ राजस कर्मका फल दुःख कहा है।रजोगुणसे दो चीजें पैदा होती हैं -- पाप और दुःख। रजोगुणी मनुष्य वर्तमानमें पाप करता है और परिणाममें उन पापोंका फल दुःख भोगता है। तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनके द्वारा मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ऐसा पूछनेपर उत्तरमें भगवान्ने रजोगुणसे उत्पन्न होनेवाली कामनाको ही पाप करानेमें हेतु बताया हैअज्ञानं तमसः फलम् -- तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक है। अतः मोहवाला तामस कर्ता परिणाम? हिंसा? हानि? और सामर्थ्यको न देखकर मूढ़तापूर्वक जो कुछ कर्म करेगा? वह कर्म तामस ही होगा और उस तामस कर्मका फल अज्ञान अर्थात् अज्ञानबहुल योनियोंकी प्राप्ति ही होगा। उस कर्मके अनुसार उसका पशु? पक्षी? कीट? पतङ्ग? वृक्ष? लता? पहाड़ आदि मूढ़योनियोंमें जन्म होगा? जिनमें अज्ञान(मूढ़ता) की मुख्यता रहती है।इस श्लोकका निष्कर्ष यह निकला कि सात्त्विक पुरुषके सामने कैसी परिस्थिति आ जाय? पर उसमें उसको दुःख नहीं हो सकता। राजस पुरुषके सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाय? पर उसमें उसको सुख नहीं हो,सकता। तामस पुरुषके सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाय ? पर उसमें उसका विवेक जाग्रत् नहीं हो सकता? प्रत्युत उसमें उसकी मूढ़ता ही रहेगी।गुण (भाव) और परिस्थिति तो कर्मोंके अऩुसार ही बनती है। जबतक गुण (भाव) और कर्मोंके साथ सम्बन्ध रहता है? तबतक मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें सुखी नहीं हो सकता। जब गुण और कर्मोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता? तब मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें कभी दुःखी नहीं हो सकता और बन्धनमें भी नहीं पड़ सकता।जन्मके होनेमें अन्तकालीन चिन्तन ही मुख्य होता है और अन्तकालीन चिन्तनके मूलमें गुणोंका बढ़ना होता है तथा गुणोंका बढ़ना कर्मोंके अनुसार होता है। तात्पर्य है कि मनुष्यका जैसा भाव (गुण) होगा? वैसा यह कर्म करेगा और जैसा कर्म करेगा? वैसा भाव दृढ़ होगा तथा उस भावके अनुसार अन्तिम चिन्तन होगा। अतः आगे जन्म होनेमें अन्तकालीन चिन्तन ही मुख्य रहा। चिन्तनके मूलमें भाव और भावके मूलमें कर्म करता है। इस दृष्टिसे गतिके होनेमें अन्तिम चिन्तन? भाव (गुण) और कर्म -- ये तीनों कारण हैं।  सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने गुणोंकी तात्कालिक वृत्तियोंके बढ़नेपर जो गतियाँ होती हैं? उनके मूलमें सात्त्विक? राजस और तामस कर्म बताये। अब सात्त्विक? राजस और तामस कर्मोंके मूलमें गुणोंको बतानेके लिये भगवान् आगेका श्लोक बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.16।। शुभ कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है; रजोगुण का फल दु;ख और तमोगुण का फल अज्ञान है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.16।।रजसस्तु फलं दुःखमित्यल्पसुखं दुःखम्। तथा हि शार्कराक्षशाखायाम् -- रजसो ह्येव जायते मात्रया सुखं दुःखं तस्मात्तान्सुखिनो दुःखिन इत्याचक्षते इति। अन्यथा दुःखस्यातिकष्टत्वात्तमोधिकत्वं रजसो न स्यात्।

Sri Anandgiri

।।14.16।।भावानां फलमुक्त्वा सात्त्विकादीनां कर्मणां फलमाह -- अतीतेति। सुकृतस्य शोभनस्य कृतस्य पुण्यस्येत्यर्थः। सात्त्विकस्याशुद्धिरहितस्येति यावत्। सात्त्विकं सत्त्वेन निर्वृत्तं निर्मलं रजस्तमःसमुद्भवान्मलान्निष्क्रान्तम्। रजश्शब्दस्य राजसे कर्मणि कुतो वृत्तिस्तत्राह -- कर्मेति। दुःखमेव दुःखबहुलं सुखमेवेत्यर्थः। कथमित्थं व्याख्यायते तत्राह -- कारणेति। पापमिश्रस्य पुण्यस्य रजोनिमित्तस्य कारणत्वात्तदनुरोधात्फलमपि रजोनिमित्तं यथोक्तं युक्तमित्यर्थः। अज्ञानमविवेकप्रायं दुःखं तामसाधर्मफलमित्याह -- तथेति।

Sri Vallabhacharya

।।14.16।।अमरणसमये इह तु फलं सुकृतस्य सत्त्वेन कृतस्य कर्मणः पुण्यरूपस्य निर्मलं भवति दुःखगन्धरहितं अज्ञानादिगन्धरहितं च। रजसस्तु दुःखमज्ञानं तमसः कर्मणः फलं येन च पुनः पुनर्जन्ममरणपर्यावर्त्तेऽपि विवेकाभाव एव भवति। यद्यपिरजः कर्मणि [14।9] इति वाक्यात्कर्ममात्रसम्बन्धो राजस एव तथापि मतान्तररीत्याऽऽह -- कर्मणः सुकृतस्येति। सर्वमेव हि गौणम्। सत्त्वेन कृतस्य कर्मणः सात्त्विकस्य सुकृतपदवाच्यस्य फलमपि सात्त्विकं निर्मलं प्रकाशबहुलं भवति? सुखं चेत्याहुः कापिलाः।

Sridhara Swami

।।14.16।।इदानीं सत्त��वादीनां स्वानुरूपकर्मद्वारेण विचित्रफलहेतुत्वमाह -- कर्मण इति। सुकृतस्य सात्त्विककर्मणः सात्त्विकं सत्त्वप्रधानं निर्मलं प्रकाशबहुलं सुखं फलमाहुः कपिलादयः। रजस इति राजसस्य कर्मण इत्यर्थः। कर्मफलकथनस्य प्राकृतत्वात्तस्य दुःखं फलमाहुः। तमस इति तामसस्य कर्मण इत्यर्थः। तस्याज्ञानं मूढत्वं फलमाहुः। सात्त्विकादिकर्मलक्षणं चनियतं सङ्गरहितं इत्यादिनाऽष्टादशे वक्ष्यति।

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