Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 15 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् | असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ||१३-१५||
Transliteration
sarvendriyaguṇābhāsaṃ sarvendriyavivarjitam . asaktaṃ sarvabhṛccaiva nirguṇaṃ guṇabhoktṛ ca ||13-15||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
13.15 Shining by the functions of all the senses, yet without the senses; unattached, yet supporting all; devoid of alities, yet their experiencer.
।।13.15।। वह समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाला, परन्तु (वस्तुत:) समस्त इन्द्रियों से रहित है; आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सबको धारणपोषण करने वाला और गुणों का भोक्ता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach projects and responsibilities with full dedication and skill ('shining by functions'), yet cultivate a sense of detachment from the immediate outcomes, praise, or criticism. Understand your role as a vital contributor ('supporting all') to the larger organizational ecosystem, without letting temporary successes or failures define your intrinsic worth or peace. This fosters resilience, objectivity, and sustained performance amidst professional fluctuations.
🧘 For Stress & Anxiety
Practice mindfulness to observe thoughts, emotions, and external stressors as transient phenomena, rather than identifying with them. Cultivate an inner 'witness consciousness' that recognizes your core being as unattached ('without the senses,' 'unattached') and unaffected by mental turmoil. This helps maintain mental equilibrium and provides a stable inner refuge, reducing the impact of stress and anxiety.
❤️ In Relationships
Engage wholeheartedly and offer genuine support ('supporting all') in your relationships, yet maintain a healthy emotional detachment from possessiveness or dependency. Love deeply without clinging, allowing yourself and others the freedom to be. Observe relationship dynamics and the actions of others with an objective perspective, understanding that your inner peace ('devoid of qualities') is not contingent on external behaviors or outcomes.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Your true Self is the unattached, transcendent witness and sustainer of all experiences, enabling every function without being bound by them. Cultivate this inner detachment to engage fully with life's paradoxes, finding profound peace amidst all fluctuations.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
13.15 सर्वेन्द्रियगुणाभासम् shining by the functions of all senses? सर्वेन्द्रयविवर्जितम् (yet) without the senses? असक्तम् unattached? सर्वभृत् (yet) supporting all? च and? एव even? निर्गुणम् devoid of alities? गुणभोक्तृ (yet) experiencer of the alities? च and.Commentary Brahman sees without eyes? hears without ears? smells without nose? eats without mouth? feels without skin? grasps without hands? walks without feet. He is the unseen seer? the unheard hearer? the unthought thinker. Other than Him there is no seer? no hearer? no thinker. He is the Self? the Inner Ruler? the Immortal. (Brihadaranyaka Upanishad III.7.23) He is free from the,alities of Nature and yet He is the enjoyer of the alities.All the senses The five organs of knowledge and the five organs of action? the inner senses? mind and intellect come under the term all the senses. The organs of action and those of knowledge perform their functions in conjunction with the mind and the intellect. They cannot function independently. Therefore? the mind and the intellect are included in the term all the senses.Brahman is transcendental and unmanifest? but It manifests Itself through the limiting adjuncts of the extrnal and the internal senses. As It is destitute of the senses It is unattached and yet It supports all. It is the support or substratum of everything. It is destitute of the alities of Nature and yet It is the enjoyer of those alities. Brahman is really mysterious.This verse is taken from the Svetasvataropanishad 3.17.
Shri Purohit Swami
13.15 Beyond the senses, It yet shines through every sense perception. Bound to nothing, It yet sustains everything. Unaffected by the Qualities, It still enjoys them all.
Dr. S. Sankaranarayan
13.15. It causes all the sense-alities to shine; [yet] It is without any sense-organ; It is unattached, yet all-supporting; It is free from the Strands, yet enjoys the Strands.
Swami Adidevananda
13.15 Shining by the functions of the senses, and yet devoid of the senses, detached and yet supporting all, devoid of Gunas and yet experiencing the Gunas;
Swami Gambirananda
13.15 Shining through the functions of all the organs, (yet) devoid of all the organs; unattached, and verily the supporter of all; without ality, and the perceiver of alities;
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।13.15।। अनिर्देश्य परम ब्रह्म का आत्मरूप से निर्देश करने की एक विधि यह है कि उसे विरोधाभास की भाषा में इंगित करे। एक वाक्य को सुनकर जब बुद्धि उसके विषय में कोई धारणा बना लेती है? तब दूसरा वाक्य उस धारणा का खण्डन कर देता है। इस प्रकार स्वाभाविक है कि वह बुद्धि कल्पना शून्य होकर अपने निर्विकल्प स्वरूप के अनुभव में स्थित हो जाती है। यह विरोधाभास की भाषा आध्यात्मिक ग्रन्थों की विशेषता है। परन्तु शास्त्रों का सतही अध्ययन करने वाले लोग? शास्त्रोपदेश की विधि के मर्म को न समझ कर? अपने अविश्वास या नास्तिकता को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए इस प्रकार के श्लोक उद्धृत करते हैं। यह श्लोक उपनिषद् से लिया गया है।आत्मचैतन्य के सम्बन्ध से ही समस्त इन्द्रियाँ अपनाअपना व्यापार करती हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे अवच्छिन्न आत्मा ही कार्य करता है तथा वह इन इन्द्रियों से युक्त है। किन्तु विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इन्द्रियाँ भौतिक पदार्थ हैं और नाशवान भी हैं? जबकि उनमें व्यक्त होकर उन्हें चेतनता प्रदान करने वाला आत्मा सनातन और अविकारी है। संक्षेप में? उपाधियों की दृष्टि से आत्मा उनका धारक प्रतीत होता है? किन्तु स्वस्वरूप से वह सर्वेन्द्रिय विवर्जित है।विद्युत् शक्ति न तो बल्ब का प्रकाश है और न हीटर की उष्णता तथापि इन उपकरणों में व्यक्त होकर विद्युत् ही प्रकाश और उष्णता के रूप में प्रतीत होती है।वह असक्त किन्तु सबको धारण करने वाला है ब्रह्म को अनासक्त धारक के रूप में समझ पाना प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए सरल नहीं है। तथापि अपने देश के महान् आचार्यों द्वारा इसे दृष्टान्तों और उपमाओं के द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया है। कोई भी तरंग सम्पूर्ण समुद्र नहीं है समस्त तरंगे सम्मिलित रूप में भी समुद्र नहीं है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि समुद्र उन तरंगों में आसक्त है? क्योंकि वह तो उन सबका स्वरूप ही है। असक्त होते हुए भी उन सबको धारण करने वाला समुद्र के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। कपास सभी वस्त्रों में है? किन्तु वस्त्र कपास नहीं है। तथापि? कपास ही वस्त्र को धारण करने वाला होता है। इसी प्रकार? विविधता की यह सृष्टि चैतन्य ब्रह्म नहीं है? परन्तु ब्रह्म ही सर्वभृत है।वह निर्गुण? किन्तु गुणों का भोक्ता है मनुष्य का मन सदैव सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में कार्य करता है। इन तीनों गुणों के प्रभावों को आत्मा सदा प्रकाशित करता रहता है। प्रकाशक प्रकाश्य के धर्मों से मुक्त होने के कारण आत्मा गुणरहित है। किन्तु एक चेतन मन ही इन गुणों का अनुभव कर सकता है? इसलिए यहाँ कहा गया है कि आत्मा स्वयं निर्गुण होते हुए भी मन की उपाधियों के द्वारा गुणों का भोक्ता भी है।इस प्रकार इस श्लोक में आत्मा का सोपाधिक (उपाधि सहित) और निरुपाधिक (उपाधि रहित) इन दोनों दृष्टिकोणों से निर्देश किया गया है।इतना ही नहीं? वरन् एक व्यष्टि उपाधि में व्यक्त आत्मा ही सर्वत्र समस्त प्राणियों में स्थित है
Swami Ramsukhdas
।।13.15।। व्याख्या -- सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् -- पहले परमात्मा हैं? फिर परमात्माकी शक्ति प्रकृति है। प्रकृतिका कार्य महत्तत्त्व? महत्तत्त्वका कार्य अहंकार? अहंकारका कार्य पञ्चमहाभूत? पञ्चमहाभूतोंका कार्य मन एवं दस इन्द्रियाँ और दस इन्द्रियोंका कार्य पाँच विषय -- ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं। परमात्मा प्रकृति और उसके कार्यसे अतीत हैं। वे चाहे सगुण हों या निर्गुण? साकार हों या निराकार? सदा प्रकृतिसे अतीत ही रहते हैं। वे अवतार लेते हैं? तो भी प्रकृतिसे अतीत ही रहते हैं। अवतारके समय वे प्रकृतिको अपने वशमें करके प्रकट होते हैं।जो अपनेको गुण��ंमें लिप्त? गुणोंसे बँधा हुआ मानकर जन्मतामरता था? वह बद्ध जीव भी जब परमात्माको प्राप्त होनेपर गुणातीत (गुणोंसे रहित) कहा जाता है? तो फिर परमात्मा गुणोंमें बद्ध कैसे हो सकते हैं वे तो सदा ही गुणोंसे अतीत (रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियोंसे रहित हैं अर्थात् संसारी जीवोंकी तरह हाथ? पैर? नेत्र? सिर? मुख? कान आदि इन्द्रियोंसे युक्त नहीं हैं किन्तु उनउन इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करनेमें सर्वथा समर्थ है (टिप्पणी प0 689)। जैसे -- वे कानोंसे रहित होनेपर भी भक्तोंकी पुकार सुन लेते हैं? त्वचासे रहित होनेपर भी भक्तोंका आलिङ्गन करते हैं? नेत्रोंसे रहित होनेपर भी प्राणिमात्रको निरन्तर देखते रहते हैं? रसनासे रहित होनेपर भी भक्तोंके द्वारा लगाये हुए भोगका आस्वादन करते हैं? आदिआदि। इस तरह ज्ञानेन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी परमात्मा शब्द? स्पर्श आदि विषयोंको ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वे वाणीसे रहित होनेपर भी अपने प्यारे भक्तोंसे बातें करते हैं? चरणोंसे रहित होनेपर भी भक्तके पुकारनेपर दौड़कर चले आते हैं? हाथोंसे रहित होनेपर भी भक्तके दिये हुए उपहारको ग्रहण करते हैं? आदिआदि। इस तरह कर्मेन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी परमात्मा कर्मेन्द्रियोंका सब कार्य करते हैं। यही इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी भगवान्का इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करना है।असक्तं सर्वभृच्चैव -- भगवान्का सभी प्राणियोंमें अपनापन? प्रेम है? पर किसी भी प्राणीमें आसक्ति नहीं है। आसक्ति न होनेपर भी वे ब्रह्मासे चींटीपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियोंका पालनपोषण करते हैं। जैसे मातापिता अपने बालकका पालनपोषण करते हैं? उससे कई गुना अधिक पालनपोषण भगवान् प्राणियोंका करते हैं। कौन प्राणी कहाँ है और किस प्राणीको कब किसी वस्तु आदिकी जरूरत पड़ती है? इसको पूरी तरह जानते हुए भगवान् उस वस्तुको आवश्यकतानुसार यथोचित रीतिसे पहुँचा देते हैं। प्राणी पृथ्वीपर हो? समुद्रमें हो? आकाशमें हो अथवा स्वर्गमें हो अर्थात् त्रिलोकीमें कहीं भी कोई छोटासेछोटा अथवा बड़ासेबड़ा प्राणी हो? उसका पालनपोषण भगवान् करते हैं। प्राणिमात्रके सुहृद् होनेसे वे अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके द्वारा पापपुण्योंका नाश करके प्राणिमात्रको शुद्ध? पवित्र करते रहते हैं।निर्गुणं गुणभोक्तृ च -- वे परमात्मा सम्पूर्ण गुणोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण गुणोंके भोक्त हैं। तात्पर्य है कि जैसे मातापिता बालककी मात्र क्रियाओंको देखकर प्रसन्न होते हैं? ऐसे ही परमात्मा भक्तके द्वारा की हुई मात्र क्रियाओंको देखकर प्रसन्न होते हैं? अर्थात् भक्तलोग जो भी क्रियाएँ करते हैं? उन सब क्रियाओंके भोक्ता भगवान् ही बनते हैं।
Swami Tejomayananda
।।13.15।। वह समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाला, परन्तु (वस्तुत:) समस्त इन्द्रियों से रहित है; आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सबको धारणपोषण करने वाला और गुणों का भोक्ता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।13.15।।सर्वेन्द्रियाणि गुणांश्चाभासयतीति सर्वेन्द्रियगुणाभासम्। इन्द्रियवर्जितत्वाद्यर्थ उक्तः पुरस्तात्।
Sri Anandgiri
।।13.15।।इतोऽपि ज्ञेयं ब्रह्मास्तीत्याह -- किञ्चेति। बहिरिति व्याख्येयमादाय व्याचष्टे -- त्वगिति। भूतेभ्यो बहिर्बाह्यविषयाद्यात्मकमित्यर्थः। कथमनात्मन एवात्मत्वं कल्पनयेत्याह -- आत्मत्वेनेति। अन्तःशब्दार्थमाह -- तथेति। भूतानां चराचराणामन्तर्मध्ये प्रत्यग्भूतमित्यर्थः। द्वितीयं पादमवतार्य व्याचष्टे -- बहिरित्यादिना। यन्मध्ये भूतात्मकं नानाविधदेहात्मना भासमानं तदपि ज्ञेयान्तर्भूतं तत्त्वं सदित्यर्थः। कथं चराचरात्मनो भूतजातस्य ज्ञेयत्वं तत्राह -- यथेति। अधिष्ठाने रज्ज्वां कल्पितसर्पादेरन्तर्भाववद्देहाभासस्यापि ज्ञेयान्तर्भावान्नासत्त्वं मध्ये ज्ञेयस्य शङ्कितव्यमित्यर्थः। सर्वात्मकं चेज्ज्ञेयं सर्वैरिदमिति किमिति न गृह्येतेति शङ्कते -- यदीति। इदमिति ग्राह्यत्वयोग्यत्वाभावान्नेत्याह -- उच्यत इति। सर्ववस्त्वात्मना भासते तदयोग्यत्वं कथमित्याशङ्क्याह -- सत्यमिति। सूक्ष्मत्वेऽपि किं स्यादित्याशङ्क्याह -- अत इति। सूक्ष्मत्वमतीन्द्रियत्वम् तस्याविज्ञेयत्वे कुतस्तज्ज्ञानान्मुक्तिस्तत्राह -- अविदुषामिति। विशेषणफलमाह -- विदुषां त्विति। तेषामात्मत्वेन ज्ञातं चेत्कथं दूरस्थत्वमित्याशङ्क्याह -- अविज्ञाततयेति। कथं तर्हि तस्य प्रत्यक्त्वं तत्राह -- अन्तिके चेति। विद्वदविद्वद्भेदापेक्षयादूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च इति श्रुतिस्तदर्थोऽत्र प्रसङ्गादनूदित इत्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।13.15।।सर्वत्र परिच्छेदस्य प्रयोजनं तूपपादितमेवअनन्तं [11।47]अव्यक्तं [13।6] इत्यत्र। एतेन सर्वतश्चक्षुरादिकार्यकृत्त्वमुक्तं अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः [श्वे.3।19ना.प.उ.9।14] विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः [ऋक्सं.4।7।27।1म.ना.2।2श्वे.उ.3।3] इति प्राकृतनिषेधपूर्वकमप्राकृतश्रवणात्। विरुद्धर्माश्रयत्वमाह -- सर्वेन्द्रियगुणाभासमिति।
Sridhara Swami
।।13.15।।किंच -- सर्वेन्द्रियेति। सर्वेषां चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां गुणेषु रूपाद्याकारासु वृत्तिषु तत्तदाकारेण भासत इति तथा। सर्वाणीन्द्रियाणि गुणांश्च तत्तद्विषयानाभासयतीति वा। सर्वेन्द्रियैर्विवर्जितं च? तथाच श्रुतिःअपाणिपादो जवनोऽग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णःइत्यादि। असक्तं सङ्गशून्यम्। तथापि सर्वं बिभर्तीति सर्वभृत्सर्वस्याधारभूतम्। तदेव निर्गुणं सत्त्वादिगुणरहितम्। गुणभोक्तृ गुणानां सत्त्वादीनां भोक्तृ च पालकम्।