Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 3 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते | सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम् ||१२-३||
Transliteration
ye tvakṣaramanirdeśyamavyaktaṃ paryupāsate . sarvatragamacintyañca kūṭasthamacalandhruvam ||12-3||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
Swami Sivananda did not comment on this sloka
Swami Tejomayananda did not comment on this sloka
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In a constantly changing professional landscape, focus on developing fundamental, timeless skills and principles that are 'immutable' and 'all-pervading' rather than getting lost in fleeting trends. Cultivate an inner stability that is not swayed by external successes or failures, understanding that true value lies beyond the 'manifest' outcomes and transient accomplishments. Strive to embody a 'fixed' and 'constant' ethical core regardless of competitive pressures.
🧘 For Stress & Anxiety
When overwhelmed by stress and the 'unthinkable' complexities of life, shift your focus inward to connect with the 'unmanifest', 'unchangeable' core of your being. Practice mindfulness and meditation to detach from transient thoughts and emotions, finding peace in the 'immovable' and 'eternal' presence within. Recognize that your deepest self is untouched by the fluctuating external world.
❤️ In Relationships
Approach relationships by seeking to understand the 'unmanifest' and 'eternal' essence of individuals beyond their changing roles, personalities, or external behaviors. Cultivate a love and empathy that is 'all-pervading' and unconditional, recognizing the shared, immutable spirit that connects all beings. This fosters deeper, more stable connections that are not dependent on superficial or transient aspects.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Discover lasting peace and liberation by shifting your focus from the transient, manifest world to the unmanifest, immutable, all-pervading, and eternal essence of reality, which is your deepest, unchanging truth.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
Swami Sivananda did not comment on this sloka
Shri Purohit Swami
Shri Purohit Swami did not comment on this sloka
Dr. S. Sankaranarayan
Dr.S.Sankaranarayan did not comment on this sloka
Swami Adidevananda
Swami Adidevananda did not comment on this sloka
Swami Gambirananda
Swami Gambirananda did not comment on this sloka
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
Swami Chinmayananda did not comment on this sloka
Swami Ramsukhdas
।।12.3।। व्याख्या--'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्'--'सम्' और 'नि'-- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे, जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुण-तत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता 2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है? प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)। गीतामें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे जितनी निर्गुणोपासना तथा कर्मयोगमें आयी है? उतनी सगुणोपासनामें नहीं। 'अचिन्त्यम्' -- मन-बुद्धिका विषय न होनेके कारण 'अचिन्त्यम्' पद निर्गुण-निराकार ब्रह्मका वाचक है; क्योंकि मन-बुद्धि प्रकृतिका कार्य होनेसे सम्पूर्ण प्रकृतिको भी अपना विषय नहीं बना सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मा इनका विषय बन ही कैसे सकता है ! प्राकृतिक पदार्थमात्र चिन्त्य है और परमात्मा प्रकृतिसे अतीत, होनेके कारण सम्पूर्ण पदार्थोंसे भी अतीत, विलक्षण हैं। प्रकृतिकी सहायताके बिना उनका चिन्तन, वर्णन नहीं किया जा सकता। अतः परमात्माको स्वयं-(करण-निरपेक्ष-ज्ञान) से ही जाना जा सकता है; प्रकृतिके कार्य मन-बुद्धि आदि (करण-सापेक्ष-ज्ञान) से नहीं। 'सर्वत्रगम्' -- सब देश, काल, वस्तु और व्यक्तियोंमें परिपूर्ण होनेसे ब्रह्म 'सर्वत्रगम्' है। सर्वव्यापी होनेके कारण वह सीमित मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे ग्रहण नहीं किया जा सकता। 'अनिर्देश्यम्' -- जिसे इदंतासे नहीं बताया जा सकता अर्थात् जो भाषा, वाणी आदिका विषय नहीं है, वह,'अनिर्देश्यम्' है। निर्देश (संकेत) उसीका किया जा सकता है, जो जाति, गुण, क्रिया एवं सम्बन्धसे युक्त हो और देश, काल, वस्तु एवं व्यक्तिसे परिच्छिन्न हो परन्तु जो चिन्मय तत्त्व सर्वत्र परिपूर्ण हो, उसका संकेत जड भाषा, वाणीसे कैसे किया जा सकता है 'कूटस्थम्'-- यह पद निर्विकार, सदा एकरस रहनेवाले सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका वाचक है। सभी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें रहते हुए भी वह तत्त्व सदा निर्विकार और निर्लिप्त रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिये वह 'कूटस्थ' है। कूट-(अहरन-) में तरह-तरहके गहने, अस्त्र, औजार आदि पदार्थ गढ़े जाते हैं, पर वह ज्यों-का-त्यों रहता है। इसी प्रकार संसारके भिन्न-भिन्न प्राणी-पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश होनेपर भी परमात्मा सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं। 'अचलम्' -- यह पद आनेजानेकी क्रियासे सर्वथा रहित ब्रह्मका वाचक है। प्रकृति चल है और ब्रह्म अचल है। 'ध्रुवम्' -- जिसकी सत्ता निश्चित (सत्य) और नित्य है? उसको ध्रुव कहते हैं। सच्चिदानन्दघन ब्रह्म सत्तारूपसे सर्वत्र विद्यमान रहनेसे 'ध्रुवम्' है। निर्गुण ब्रह्मके आठों विशेषणोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषण 'ध्रुवम्' है। ब्रह्मके लिये अनिर्देश्य? अचिन्त्य आदि निषेधात्मक विशेषण देनेसे कोई ऐसा न समझ ले कि वह है ही नहीं, इसलिये यहाँ 'ध्रुवम्' विशेषण देकर उस तत्त्वकी निश्चित सत्ता बतायी गयी है। उस तत्त्वका कभी कहीं किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं होता। उसकी सत्तासे ही असत्(संसार) को सत्ता मिल रही है -- जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।। (मानस 1। 117। 4)। 'अक्षरम्' -- जिसका कभी क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता तथा जिसमें कभी कोई कमी नहीं आती, वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म 'अक्षरम्' है। 'अव्यक्तम्' -- जो व्यक्त न हो अर्थात् मन-बुद्धिइन्द्रियोंका विषय न हो और जिसका कोई रूप या आकार न हो, उसको 'अव्यक्तम्' कहा गया है। 'पर्युपासते' -- यह पद यहाँ निर्गुण-उपासकोंकी सम्यक् उपासनाका बोधक है। शरीर-सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंमें वासना तथा अहंभावका अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्दघन परमात्मामें अभिन्नभावसे नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। इन श्लोकोंमें आठ विशेषणोंसे जिस विशेष वस्तुतत्त्वका लक्ष्य कराया गया है और उससे जो विशेष वस्तु समझमें आती है, वह बुद्धिविशिष्ट ब्रह्मका ही स्वरूप है, जो कि पूर्ण नहीं है; क्योंकि (लक्षण और विशेषणोंसे रहित) निर्गुण-निर्विशेष ब्रह्मका स्वरूप (जो बुद्धिसे अतीत है) किसी भी प्रकारसे पूर्णतया बुद्धि आदिका विषय नहीं हो सकता। हाँ, इन विशेषणोंका लक्ष्य रखकर जो उपासना की जाती है, वह निर्गुण ब्रह्मकी ही उपासना है और इसके परिणाममें प्राप्ति भी निर्गुण ब्रह्मकी ही होती है। विशेष बात परमात्माको तत्त्वसे समझानेके लिये दो प्रकारके विशेषण दिये जाते हैं -- निषेधात्मक और विध्यात्मक। परमात्माके अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, अचल, अव्यय, असीम, अपार, अविनाशी आदि विशेषण,निषेधात्मक हैं और सर्वव्यापी, कूटस्थ, ध्रुव, सत्, चित्त, आनन्द आदि विशेषण विध्यात्मक हैं। परमात्माके निषेधात्मक विशेषणोंका तात्पर्य प्रकृतिसे परमात्माकी असङ्गता बताना है और विध्यात्मक विशेषणोंका तात्पर्य परमात्माकी स्वतन्त्र 'सत्ता' बताना है। परमात्मतत्त्व सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति-- दोनोंसे परे (सहज निवृत्त) और दोनोंको समानरूपसे प्रकाशित करनेवाला है। ऐसे निरपेक्ष परमात्मतत्त्वका लक्ष्य करानेके लिये और बुद्धिको परमात्माके नजदीक पहुँचानेके लिये ही भिन्न-भिन्न विशेषणोंसे परमात्माका वर्णन (लक्ष्य) किया जाता है। गीतामें परमात्मा और जीवात्माके स्वरूपका वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। परमात्माके लिये यहाँ जो विशेषण दिये गये हैं, वही विशेषण गीतामें जीवात्माके लिये भी दिये गये हैं; जैसे -- दूसरे अध्यायके चौबीसवेंपचीसवें श्लोकोंमें 'सर्वगतः, अचलः, अव्यक्तः, अचिन्त्यः' आदि और पन्द्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें 'कूटस्थः' एवं 'अक्षरः' विशेषण जीवात्माके लिये आये हैं। इसी प्रकार सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें 'अव्ययम्' विशेषण परमात्माके लिये और चौदहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्ययम्' विशेषण जीवात्माके लिये आया है। संसारमें व्यापक-रूपसे भी परमात्मा और जीवात्माको समान बताया गया है; जैसे -- आठवें अध्यायके बाईसवें तथा अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें येन सर्वमिदं ततम् पदोंसे और नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें 'मया ततमिदं सर्वम्' पदोंसे परमात्माको सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त बताया गया है। इसी प्रकार दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें 'येन सर्वमिदं ततम्' पदोंसे जीवात्माको भी सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त बताया गया है। जैसे नेत्रोंकी दृष्टि आपसमें नही टकराती अथवा व्यापक होनेपर भी शब्द परस्पर नहीं टकराते। ऐसे ही (द्वैतमतके अनुसार) सम्पूर्ण जगत्में समानरूपसे व्याप्त होनेपर भी निरवयव होनेसे परमात्मा और जीवात्माकी,सर्वव्यापकता आपसमें नहीं टकराती। 'सर्वभूतहिते रताः' -- कर्मयोगके साधनमें आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थके त्यागकी मुख्यता है। मनुष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थोंको 'अपना' और 'अपने लिये' न मानकर उनको दूसरोंकी सेवामें लगाता है; तब उसकी आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थभावका त्याग स्वतः हो जाता है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रकी सेवा करना ही है, वह अपने शरीर और पदार्थोंको (दीनदुःखी, अभावग्रस्त) प्राणियोंकी सेवामें लगायेगा ही। शरीरको दूसरोंकी सेवामें लगानेसे 'अहंता' और पदार्थोंको दूसरोंकी सेवामें लगानेसे, 'ममता' नष्ट होती है। साधकका पहलेसे ही यह लक्ष्य होता है कि जो पदार्थ सेवामें लग रहे हैं, वे सेव्यके ही हैं। अतः कर्मयोगके साधनमें सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत रहना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये 'सर्वभूतहिते रताः' पदका प्रयोग कर्मयोगका आचरण करनेवालेके सम्बन्धमें करना ही अधिक युक्तिसङ्गत है। परन्तु भगवान्ने इस पदका प्रयोग यहाँ तथा पाँचवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें -- दोनों ही स्थानोंपर ज्ञानयोगियोंके सम्बन्धमें किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये कर्मयोगकी प्रणालीको अपनानेकी आवश्यकता ज्ञानयोगमें भी है। एक बात खास ध्यान देनेकी है। शरीर, पदार्थ और क्रियासे जो सेवा की जाती है, वह सीमित ही होती है; क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ मिलकर भी सीमित ही हैं। परन्तु सेवामें प्राणिमात्रके हितका भाव असीम होनेसे सेवा भी असीम हो जाती है। अतः पदार्थोंके अपने पास रहते हुए भी (उनमें आसक्ति, ममता आदि न करके) उनको सम्पूर्ण प्राणियोंका मानकर उन्हींकी सेवामें लगाना है; क्योंकि वे पदार्थ समष्टिके ही हैं। ऐसा असीम भाव होनेपर जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण साधकको असीम तत्त्व-(परमात्मा-) की प्राप्ति हो जाती है। कारण कि पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपना) माननेसे ही मनुष्यमें परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) तथा विषमता रहती है और पदार्थोंको व्यक्तिगत न मानकर सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखनेसे परिच्छिन्नता तथा विषमता मिट जाती है। इसके विपरीत साधारण मनुष्यका ममतावाले प्राणियोंकी सेवा करनेका सीमित भाव रहनेसे वह चाहे अपना सर्वस्व उनकी सेवामें क्यों न लगा दे, तो भी पदार्थोंमें तथा जिनकी सेवा करे, उनमें आसक्ति, ममता आदि रहनेसे (सीमित भावके कारण) उसे असीम परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती। अतः असीम परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये प्राणिमात्रके हितमें रति अर्थात् प्रीतिरूप असीम भावका होना आवश्यक है। 'सर्वभूतहिते रताः' पद उसी भावको व्यक्त करते हैं।ज्ञानयोगका साधक जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता तो है परन्तु जबतक उसके हृदयमें नाशवान् पदार्थोंका आदर है, तबतक पदार्थोंको मायामय अथवा स्वप्नवत् समझकर उनका ऐसे ही त्याग कर देना उसके लिये कठिन है। परन्तु कर्मयोगका साधक पदार्थोंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर उनका त्याग ज्ञानयोगीकी अपेक्षा सुगमतापूर्वक कर सकता है। ज्ञानयोगीमें तीव्र वैराग्य होनेसे ही पदार्थोंका त्याग हो सकता है परन्तु कर्मयोगी थोड़े वैराग्यमें ही पदार्थोंका त्याग (परहित-में) कर सकता है। प्राणियोंके हितमें पदार्थोंका सदुपयोग करनेसे जडतासे सुगमतापूर्वक सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। भगवान्ने यहाँ 'सर्वभूतहिते रताः' पद देकर यही बताया है कि प्राणिमात्रके हितमें रत रहनेसे पदार्थोंके प्रति आदरबुद्धि रहते हुए भी जडतासे सम्बन्धविच्छेद सुगमतापूर्वक हो जायगा। प्राणिमात्रका हित करनेके लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है। निर्गुण-उपासकोंकी साधनाके अन्तर्गत अनेक अवान्तर भेद होते हुए भी मुख्य भेद दो हैं -- (1) जडचेतन और चरअचरके रूपमें जो कुछ प्रतीत होता है, वह सब आत्मा या ब्रह्म है और (2) जो कुछ दृश्यवर्ग प्रतीत होता है, वह अनित्य, क्षणभङ्गुर और असत् है -- इस प्रकार संसारका बाध करनेपर जो तत्त्व शेष रह जाता है, वह आत्मा या ब्रह्म है।पहली साधनामें सब कुछ ब्रह्म है इतना सीख लेनेमात्रसे ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती। जबतक,अन्तःकरणमें राग अर्थात् काम-क्रोधादि विकार हैं, तबतक ज्ञाननिष्ठाका सिद्ध होना बहुत कठिन है। जैसे राग मिटानेके लिये कर्मयोगीके लिये सभी प्राणियोंके हितमें रति होना आवश्यक है, ऐसे ही निर्गुणउपासना करनेवाले साधकोंके लिये भी प्राणिमात्रके हितमें रति होना आवश्यक है -- तभी राग मिटकर ज्ञाननिष्ठा सिद्ध हो सकती है। इसी बातका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ 'सर्वभूतहिते रताः' पद आये हैं। दूसरी साधनामें, जो साधक संसारसे उदासीन रहकर एकान्तमें ही तत्त्वका चिन्तन करते रहते हैं, उनके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग सहायक तो होता है परन्तु केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे ही सिद्धि प्राप्त नहीं होती (गीता 3। 4), प्रत्युत सिद्धि प्राप्त करनेके लिये भोगोंसे वैराग्य और शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धिमें अपनेपनके त्यागकी अत्यन्त आवश्यकता है। इसलिये वैराग्य और निर्ममताके लिये 'सर्वभूतहिते रताः' होना आवश्यक है।ज्ञानयोगका साधक प्रायः समाजसे दूर, असङ्ग रहता है। अतः उसमें व्यक्तित्व रह जाता है, जिसे दूर करनेके लिये संसारमात्रके हितका भाव रहना अत्यन्त आवश्यक है।वास्तवमें असङ्गता शरीरसे ही होनी चाहिये। समाजसे असङ्गता होनेपर अहंभाव दृढ़ होता है, अर्थात् मिटता नहीं। जबतक साधक अपनेको शरीरसे स्पष्टतः अलग अनुभव नहीं कर लेता, तबतक संसारसे अलग रहनेमात्रसे उसका लक्ष्य सिद्ध नहीं होता क्योंकि शरीर भी संसारका ही अङ्ग है और शरीरमें तादात्म्य और ममताका न रहना ही उससे वस्तुतः अलग होना है। तादात्म्य और ममता मिटानेके लिये साधकको प्राणिमात्रके हितमें लगना आवश्यक है।दूसरी बात यह है कि साधक सर्वदा एकान्तमें ही रहे, यह सम्भव भी नहीं है क्योंकि शरीरनिर्वाहके लिये उसे व्यवहारक्षेत्रमें आना ही पड़ता है और वैराग्यमें कमी होनेपर उसके व्यवहारमें अभिमानके कारण कठोरता आनेकी सम्भावना रहती है तथा कठोरता आनेसे उसके व्यक्तित्व-(अहंभाव-) का नाश नहीं होता। अतः उसे तत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनता होती है। व्यवहारमें कहीं कठोरता न आ जाय, इसके लिये भी यह जरूरी है कि साधक सभी प्राणियोंके हितमें रत रहे। ऐसे ज्ञानयोगके साधकद्वारा सेवाकार्यका विस्तार चाहे न हो परन्तु भगवान् कहते हैं कि वह भी (सभी प्राणियोंके हि��में रति होनेके कारण) मेरेको प्राप्त कर लेगा।सगुणोपासक और निर्गुणोपासक -- दोनों ही प्रकारके साधकोंके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखना जरूरी है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसे अलग अपना हित माननेसे अहम् अर्थात् व्यक्तित्व बना रहता है, जो साधकके लिये आगे चलकर बाधक होता है। वास्तवमें कल्याण अहम् के मिटनेपर ही होता है। अपने लिये किये जानेवाले साधनसे अहम् बना रहता है, इसलिये अहम्को पूर्णतया मिटानेके लिये साधकको प्रत्येक क्रिया (खाना, पीना, सोना आदि एवं जप, ध्यान, पाठ, स्वाध्याय आदि भी) संसारमात्रके हितके लिये ही करनी चाहिये। संसारके हितमें ही अपना हित निहित है। भगवान्की मात्र शक्ति परहितमें लग रही है। अतः जो सबके हितमें लगेगा, भगवान्की शक्ति उसके साथ हो जायगी।केवल दूसरेके लिये वस्तुओंको देना और शरीरसे सेवा कर देना ही सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी न चाहकर दूसरेका हित कैसे हो, उसको सुख कैसे मिले -- इस भावसे कर्म करना ही सेवा है। अपनेको सेवक कहलानेका भाव भी मनमें नहीं रहना चाहिये। सेवा तभी हो सकती है, जब सेवक जिसकी सेवा करता है, उसे अपनेसे अभिन्न (अपने शरीरकी तरह) मानता है और बदलेमें उससे कुछ भी लेना नहीं चाहता। जैसे मनुष्य बिना किसीके उपदेश दिये अपने शरीरकी सेवा स्वतः ही बड़ी सावधानीसे करता है और सेवा करनेका अभिमान भी नहीं करता, ऐसे ही सर्वत्र आत्मबुद्धि होनेसे सिद्ध महापुरुषोंकी स्वतः सबके हितमें रति रहती है (गीता 6। 32)। उनके द्वारा प्राणिमात्रका कल्याण होता है परन्तु उनके मनमें लेशमात्र भी ऐसा,भाव नहीं होता कि हम किसीका कल्याण कर रहे हैं। उनमें अहंताका सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः ऐसे जीवन्मुक्त महापुरुषोंको आदर्श मानकर साधको चाहिये कि सर्वत्र आत्मबुद्धि करके संसारके किसी भी प्राणीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न पहुँचाकर उनके हितमें सदा तत्परतासे स्वाभाविक ही रत रहे। 'सर्वत्र समबुद्धयः'-- इस पदका भाव यह है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्मके उपासकोंकी दृष्टि सम्पूर्ण प्राणी
Swami Tejomayananda
Swami Tejomayananda did not comment on this sloka
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
Sri Madhavacharya did not comment on this sloka
Sri Anandgiri
Sri Anandgiri did not comment on this sloka
Sri Vallabhacharya
Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka
Sridhara Swami
Sri Sridhara Swami did not comment on this sloka