Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 13 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च | निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||१२-१३||
Transliteration
adveṣṭā sarvabhūtānāṃ maitraḥ karuṇa eva ca . nirmamo nirahaṅkāraḥ samaduḥkhasukhaḥ kṣamī ||12-13||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
12.13 He who hates no creature, who is friendly and compassionate to all, who is free from attachment and egoism, balanced in pleasure and pain, and forgiving.
।।12.13।। भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate a collaborative and empathetic work environment by approaching colleagues and tasks with a friendly and compassionate attitude. Maintain composure amidst project successes or failures, detaching from personal ego when giving or receiving feedback, and forgiving mistakes (yours or others') to foster productivity and positive team dynamics.
🧘 For Stress & Anxiety
Reduce emotional volatility and stress by practicing detachment from outcomes and external praise/criticism. Develop equanimity, viewing pleasure and pain as transient, which helps maintain inner peace regardless of life's ups and downs. Actively practice forgiveness towards self and others to release resentment and mental burden.
❤️ In Relationships
Strengthen all relationships by eliminating judgment and hatred, extending genuine friendliness and compassion to everyone. Let go of ego-driven conflicts and possessiveness, allowing for more understanding and less friction. Be quick to forgive, fostering an environment of trust, patience, and unconditional love.
relationships_long
Strengthen all relationships by eliminating judgment and hatred, extending genuine friendliness and compassion to everyone, even those who might typically evoke negative feelings. Let go of ego-driven conflicts and possessiveness ('mineness'), allowing for more understanding and less friction. Practice equanimity when facing disagreements or challenges within relationships, and be quick to forgive, fostering an environment of trust, patience, and unconditional love that can repair and sustain bonds.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Embrace universal love, detachment from ego, and equanimity in all circumstances to cultivate profound inner peace and harmonious existence.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
12.13 अद्वेष्टा nonhater? सर्वभूतानाम् of (to) all creatures? मैत्रः friendly? करुणः compassionate? एव even? च and? निर्ममः without mineness? निरहङ्कारः without egoism? समदुःखसुखः balanced in pleasure and pain? क्षमी forgiving.Commentary Lord Krishna gives a description of the nature of a Bhagavata or a sage in the following eight verses. These eight verses are called Amritashtakam.The devotee who is established in God bears illwill to none. He looks on all with love and great compassion. He regards all beings as himself. He does not hate even a single being? not even the creature which gives him intense pain. He who entertains mercy towards suffering people and tries to relieve their sufferings is a man of Karuna. He puts himself in the position of the sufferer and feels the pain himself. Mercy is a divine attribute. God is allmerciful. If you wish to hold communion with the Lord? and if you desire to attain Godhead? you must also become allmerciful.The perfect devotee offers full security of life (Abhayadana) to all beings. He is a Paramahamsa Sannyasi. The devotee only can really understand the mysterious ways of the Lord. He beholds the Lord everywhere. He sees the Lord in all creatures. That is the reason why he has eal vision. He is like the sun or the river. The sun sheds its light eally on a palace or a cottage. Anyone can drink the water of a river. A river enches the thirst of cows as well as tigers and lions. The idea of mineness and Iness never arises in the devotees mind. He has no sense of mine and thine. He is indifferent to pleasure and pain. He is not attached to pleasant objects. He does not hate the objects that give him pain. He is as forgiving as the earth. He is not affected a bit when anybody insults? abuses or beats him.
Shri Purohit Swami
12.13 He who is incapable of hatred towards any being, who is kind and compassionate, free from selfishness, without pride, equable in pleasure and in pain, and forgiving,
Dr. S. Sankaranarayan
12.13. He, who is not a hater, [but] only a compassionate friend of every being; who is free from the sense of 'mine, and the sense of 'I'; who is even minded in pain and pleasure and is endowed with forbearance;
Swami Adidevananda
12.13 He who never hates any being, who is friendly and compassionate, who is free from the feelings of I and mine, who looks upon all pain and pleasure the same as and who is enduring;
Swami Gambirananda
12.13 He who is not hateful towards any creature, who is friendly and compassionate, who has no idea of 'mine' and the idea of egoism, who is the same under sorrow and happiness, who is forgiving;
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।12.13।। See Commentary under 12.14
Swami Ramsukhdas
।।12.13।। व्याख्या --'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्'-- अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ, क्रिया, व्यक्ति, घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले, किसी प्रकारकी आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये, पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है, ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --,'निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।' (मानस 7। 112 ख)।इतना ही नहीं; वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है! प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है। 'मैत्रः करुण एव च' (टिप्पणी प0 648)-- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका अत्यन्त अभाव ही नहीं होता, प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं --'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है --'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक ही मैत्री और दयाका भाव रहता है -- हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।(मानस 7। 47। 3)अपना अनिष्ट करनेवालोंके प्रति भी भक्तके द्वारा मित्रताका व्यवहार होता है; क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करनेवालेने अनिष्टरूपमें भगवान्का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है, मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान्का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं, भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करनेवाला (अनिष्टमें निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मोंका नाश कर रहा है; अतः वह विशेषरूपसे आदरका पात्र है। साधकमात्रके मनमें यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करनेवाला उसके पिछले पापोंका फल भुगताकर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधकमें भी अनिष्ट करनेवालेके प्रति मैत्री और करुणाका भाव रहता है, फिर सिद्ध भक्तका तो कहना ही क्या है, सिद्ध भक्तका तो उसके प्रति ही क्या, प्राणिमात्रके प्रति मैत्री और दयाका विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्त-शुद्धिके चार हेतु बताये गये हैं-- 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।' (1। 33)'सुखियोंके प्रति मैत्री, दुःखियोंके प्रति करुणा, पुण्यात्माओंके प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओंके प्रति उपेक्षाके भावसे चित्तमें निर्मलता आती है।' परन्तु भगवान्ने इन चारों हेतुओँको ��ोमें विभक्त कर दिया है -- 'मैत्रः च करुणः।' तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्तका सुखियों और पुण्यात्माओंके प्रति 'मैत्री' का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओंके प्रति 'करुणा' का भाव रहता है।दुःख पानेवालेकी अपेक्षा दुःख देनेवाले पर (उपेक्षाका भाव न होकर) दया होनी चाहिये; क्योंकि दुःख पानेवाला तो (पुराने पापोंका फल भोगकर) पापोंसे छूट रहा है, पर दुःख देनेवाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देनेवाला दयाका विशेष पात्र है। 'निर्ममः'-- यद्यपि भक्तका प्राणिमात्रके प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणाका भाव रहता है, तथापि उसकी किसीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थोंमें ममता (मेरेपनका भाव) ही मनुष्यको संसारमें बाँधनेवाली होती है। भक्त इस ममतासे सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको हटानेकी चेष्टा करता है, पर अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता। 'निरहंकारः'-- शरीर, इन्द्रियाँ आदि जड-पदार्थोंको अपना स्वरूप माननेसे अहंकार उत्पन्न होता है।भक्तकी अपने शरीरादिके प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होनेके कारण तथा केवल भगवान्से अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव हो जानेके कारण उसके अन्तःकरणमें स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणोंको भी वह अपने गुण नहीं मानता, प्रत्युत (दैवी सम्पत्ति होनेसे) भगवान्के ही मानता है। 'सत्'-(परमात्मा-)के होनेके कारण ही ये गुण 'सद्गुण' कहलाते हैं। ऐसी दशामें भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है! इसलिये वह अहंकारसे सर्वथा रहित होता है। 'समदुःखसुखः'-- भक्त सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम रहता है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता उसके हृदयमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते। गीतामें 'सुख-दुःख' पद अनुकूलता-प्रतिकूलताकी परिस्थिति-(जो सुख-दुःख उत्पन्न करनेमें हेतु है) के लिये तथा अन्तःकरणमें होनेवाले हर्ष-शोकादि विकारोंके लिये भी आया है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्यको सुखी-दुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुख-दुःखमें सम होनेका अर्थ है-- अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर अपनेमें हर्ष-शोकादि विकारोंका न होना। भक्तके शरीर, इन्द्रियाँ, मन, सिद्धान्त आदिके अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिका संयोग या वियोग होनेपर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलताका 'ज्ञान' तो होता है, पर उसके अन्तःकरणमें हर्ष-शोकादि कोई 'विकार' उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थितिका ज्ञान होना अपने-आपमें कोई दोष नहीं है, प्रत्युत उससे अन्तःकरणमें विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है। जैसे, प्रारब्धानुसार भक्तके शरीरमें कोई रोग होनेपर उसे शारीरिक पीड़ाका ज्ञान (अनुभव) तो होगा किन्तु उसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार नहीं होगा। 'क्षमी'-- अपना किसी तरहका भी अपराध करनेवालेको किसी भी प्रकारका दण्ड देनेकी इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देनेवालेको 'क्षमी' कहते हैं।भक्तके लक्षणोंमें पहले 'अद्वेष्टा' पद देकर भगवान्ने भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति द्वेषका अभाव बताया, अब यहाँ 'क्षमी' पदसे यह बताते हैं कि भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान् अथवा अन्य किसीके द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्तकी एक विशेषता है। 'संतुष्टः सततम्' (टिप्पणी प0 650.1) -- जीवको मनके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिके संयोगमें और मनके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिके वियोगमें एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थोंसे होनेके कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होनेके कारण जीवको नित्य परमात्माकी अनुभूतिसे ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है। भगवान्को प्राप्त होनेपर भक्त नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहता है क्योंकि न तो उसका भगवान्से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान् संसारकी कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोषका कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टिके कारण वह संसारके किसी भी प्राणीपदार्थके प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)।'संतुष्टः' के साथ 'सततम्' पद देकर भगवान्ने भक्तके उस नित्यनिरन्तर रहनेवाले संतोषकी ओर ही लक्ष्य,कराया है, जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़नेकी सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग -- किसी भी योगमार्गसे सिद्धि प्राप्त करनेवाले महापुरुषमें ऐसी संतुष्टि (जो वास्तवमें है) निरन्तर रहती है। 'योगी' -- भक्तियोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त (नित्यनिरन्तर परमात्मासे संयुक्त) पुरुषका नाम यहाँ योगी है।वास्तवमें किसी भी मनुष्यका परमात्मासे कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकताका जिसने अनुभव कर लिया है, वही योगी है। 'यतात्मा'-- जिसका मनबुद्धिइन्द्रियोंसहित शरीरपर पूर्ण अधिकार है, वह यतात्मा है। सिद्ध भक्तको मनबुद्धि आदि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वशमें रहते हैं। इसलिये उसमें किसी प्रकारके इन्द्रियजन्य दुर्गुणदुराचारी के आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती।वास्तवमें मनबुद्धिइन्द्रियाँ स्वाभाविकरूपसे सन्मार्गपर चलनेके लिये ही हैं किन्तु संसारसे रागयुक्त सम्बन्ध रहनेसे ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्तका संसारसे किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त सम्बन्ध नहीं होता, इसलिये उसकी मनबुद्धिइन्द्रियाँ सर्वथा उसके वशमें होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंके लिये आदर्श होती है।ऐसा देखा जाता है कि न्यायपथपर चलनेवाले सत्पुरुषोंकी इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे, राजा दुष्यन्तकी वृत्ति शकुन्तलाकी ओर जानेपर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रियकन्या ही है, ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदासके कथनानुसार जहाँ सन्देह हो, वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है --,'सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः'।।(अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1। 21)जब न्यायशील सत्पुरुषकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्गकी ओर नहीं होती, तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्मसे कभी किसी अवस्थामें च्युत नहीं होता) की मनबुद्धिइन्द्रियाँ कुमार्गकी ओर जा ही कैसे सकती हैं'दृढनिश्चयः' -- सिद्ध महापुरुषकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धिमें एक परमात्माकी ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धिमें विपर्ययदोष (प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारका स्थायी दीखना) नहीं रहता। उसको एक भगवान्के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान्में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धिमें नहीं, प्रत्युत,स्वयं में होता है, जिसका आभास बुद्धिमें प्रतीत होता है।संसारकी स्वतन्त्र सत्ता माननेसे अथवा संसारसे अपना सम्बन्ध माननेसे ही बुद्धिमें विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषकी बुद्धिके निश्चयमें ही अन्तर होता है स्वरूपसे तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानीकी बुद्धिमें संसारकी सत्ता और उसका महत्त्व रहता है परन्तु सिद्ध भक्तकी बुद्धिमें एक भगवान्के सिवाय न तो संसारकी किसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोषसे सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मामें ही दृढ़ निश्चय होता है।'मय्यर्पितमनोबुद्धिः'--जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्तिको ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान्का ही हो जाता है (जो कि वास्तवमें है) तब उसके मनबुद्धि भी अपनेआप भगवान्में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्तके मनबुद्धि भगवान्के अर्पित रहें -- इसमें तो कहना ही क्या हैजहाँ प्रेम होता है, वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्यका मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्तसे श्रेष्ठ समझता है, उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्तके लिये भगवान्से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मनबुद्धिपर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान्का ही मानता है। अतः उसके मनबुद्धि स्वाभाविक ही भगवान्में लगे रहते हैं। 'यः मद्भक्तः स मे प्रियः' (टिप्पणी प0 651)-- भगवान्को तो सभी प्रिय हैं परन्तु भक्तका प्रेम भगवान्के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशामें 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।' (गीता 4। 11)-- इस प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान्को भी भक्त प्रिय होता है। सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके लक्षणोंका दूसरा प्रकरण, जिसमें छः लक्षणोंका वर्णन है, आगेके श्लोकमें आया है।
Swami Tejomayananda
।।12.13।। भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।12.13।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।12.13।।संप्रत्यद्वेष्टेत्याद्यवतारयितुं वृत्तं कीर्तयति -- अत्र चेति। तथोश्चेदात्यन्तिकोऽभेदो न तर्हीश्वरे मनःसमाधानरूपो योगोऽत्यन्ताभेदे ध्यातृध्येयत्वाभावात् नचात्यन्ताभेदे कर्मानुष्ठानं तत्फलत्यागो वा परस्परं तदयोगादित्यर्थः। भगवदुक्तिसामर्थ्यादपि कर्मयोगादिनाभेददृष्टिमतो भवतीत्याह -- अथेति। अक्षरोपासकस्य कर्मयोगायोगवत्कर्मयोगिनोऽक्षरोपासनानुपपत्तिरपि दर्शितेत्याह -- तथेति। अक्षरोपासकाः सम्यग्धीनिष्ठा यथाज्ञानं भगवन्तमेवाप्नुवन्ति न तथा कर्मिणः साक्षात्तदाप्तावुचितास्तथा च कर्मिणो नाक्षरोपासनसिद्धिरित्यर्थः। इतश्चाक्षरोपासनं कर्मानुष्ठानं न चैकत्र युक्तमित्याह -- अक्षरेति। नन्वक्षरोपासकवदन्येषामपीश्वरात्मत्वाविशेषात्कुतस्तदधीनत्वं तत्राह -- यदीति। कर्मयोगस्याक्षरोपास्तेश्च युगपदेकत्रायोगे हेत्वन्तरमाह -- यस्माच्चेति।कुरु कर्मैवे त्यादाविति शेषः। किंचाक्षरोपासको वाक्यादीश्वरमात्मानं वेत्ति नासौ क्रियायां गुणत्वेन कर्तृत्वमनुभवति गुणत्वेश्वरत्वयोरेकत्र व्याघातादतोऽपि नाक्षरोपासनं कर्मानुष्ठानं चैकत्र युक्तमित्याह -- नचेति। अक्षरोपास्तिकर्मयोगयोरेकत्र पर्यायायोगे फलितमाह -- तस्मादिति। अज्ञानां कर्मिणां वक्ष्यमाणधर्मजातस्य साकल्येनायोगादक्षरनिष्ठानामेवेदमुच्यतेऽविरुद्धांशस्य तु सर्वार्थत्वमिष्टमेवेत्यर्थः। सर्वेषां भूतानां मध्ये यो दुःखहेतुस्तं विद्वानपि द्वेष्ट्येवेत्याशङ्क्याह -- आत्मन इति। तत्र हेतुः -- सर्वाणीति। सर्वभूतानामित्युभयतः संबध्यते। ममप्रत्ययवर्जितो देहेऽपीति शेषः। व्रतस्वाध्यायकृताहंकारान्निष्क्रान्तत्वमाह -- निर्गतेति।
Sri Vallabhacharya
।।12.13।।एवमादिधर्मवतो भक्तस्य द्वात्रिंशल्लक्षणं पुष्टिसूचकमिति तस्य स्वप्रियत्वमाह षड्गुणभगवतोऽनुग्रहात्प्रीतिविषयत्वाच्चैकेन षड्भिः श्लोकैः। यद्यपि भगवन्मार्गे सत्सङ्गादेर्भगवद्भक्तिहेतुत्वं तथापि तं प्रति भगवदनुग्रहस्यैव निर्हेतुकस्य हेतुत्वं सम्भवतिभवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः इत्यादि भागवते [10।51।54] भगवत्सेवकवाक्ये भवं अपवर्जयतीति तद्व्याख्यानादनुग्रह एव तत्र,हेतुरिति मूलभूततदनुग्रहीतत्वात्। अद्वेष्टेति।
Sridhara Swami
।।12.13।। एवंभूतस्य भक्तस्य क्षिप्रमेव परमेश्वरप्रसादहेतून्धमानाह -- अद्वेष्टेत्यष्टभिः। सर्वभूतानां यथायथमद्वेष्टा? मैत्रः? करुणश्च उत्तमेषु द्वेषशून्यः? समेषु मित्रतया वर्तत इति मैत्रः। हीनेषु कृपालुरित्यर्थः। निर्ममो निरहंकारश्च। कृपालुत्वादेवान्यैः सह समे दुःखसुखे यस्य सः। क्षमी क्षमावान्।