Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 55 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः | निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ||११-५५||
Transliteration
matkarmakṛnmatparamo madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ . nirvairaḥ sarvabhūteṣu yaḥ sa māmeti pāṇḍava ||11-55||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.55 He who does all actions for Me, who looks upon Me as the Supreme, who is devoted to Me, who is free from attachment, who bears enmity towards no creature, he comes to Me, O Arjuna.
।।11.55।। हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Perform your professional duties with dedication and integrity, viewing your work as an offering to a higher purpose rather than solely for personal gain. Prioritize ethical conduct and collaboration, striving for excellence while being detached from the outcomes, understanding that your efforts contribute to a larger whole.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate detachment from the results of your endeavors; do your best and then release anxiety over success or failure. Shift your mental focus from personal worries to a supreme purpose, providing a steady anchor amidst life's chaos. Practice forgiveness and let go of grudges, freeing your mind from the burden of resentment.
❤️ In Relationships
Engage in all relationships with selfless love and without possessiveness or expectation. Treat family, friends, and even strangers with universal kindness and compassion, recognizing the divine essence in all beings. This fosters empathy, resolves conflicts, and promotes harmonious connections free from enmity.
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Dedicate all actions to the Divine, hold the Supreme as your ultimate goal, release all attachment, and embrace every being with universal love to attain true liberation and peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.55 मत्कर्मकृत् does actions for Me? मत्परमः looks on Me as the Supreme? मद्भक्तः is devoted to Me? सङ्गवर्जितः is freed from attachment? निर्वैरः without enmity? सर्वभूतेषु towards all creatures? यः who? सः he? माम् to Me? एति goes? पाण्डव O Arjuna.Commentary This is the essence of the whole teaching of the Gita. He who practises this teaching will attain Supreme Bliss and Immortality. This verse contains the summary of the entire philosophy of the Gita.He who performs actions (duties) for the sake of the Lord? who consecrates all his actions to Him? who serves the Lord with his heart and soul? who regards the Lord as his supreme goal? who lives for Him alone? who works for Him alone? who sees the Lord in everything? who sees the whole world as the Cosmic Form of the Lord and therefore cherishes no feeling of hatred or enmity towards any creature even when great injury has been done by others to him? who has no attachment or love to wealth? children? wife? friends and relatives? and who seeks nothing else but the Lord? realises Him and enters into His Being. He becomes one with Him.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eleventh discourse entitledThe Yoga of the Vision of the Cosmic Form.,
Shri Purohit Swami
11.55 He whose every action is done for My sake, to whom I am the final goal, who loves Me only and hates no one - O My dearest son, only he can realize Me!"
Dr. S. Sankaranarayan
11.55. He, who performs actions for [attaining] Me; who regards Me as his supreme goal; who is devoted to Me; who is free from attachment; and who is free from hatred towards all beings-he attains me, O son of Pandu !
Swami Adidevananda
11.55 Whosoever works for Me, looks upon Me as the highest and is devoted to Me, free from attached and without enmity towards any creature, he comes to Me, O Arjuna.
Swami Gambirananda
11.55 O son of Pandu, he who works for Me, accepts Me as the supreme Goal, is devoted to Me, is devoid of attachment and free from enmity towards all beings-he attains Me.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.55।। अर्जुन ने यह सुना कि अनन्यभक्ति के द्वारा कोई भी भक्त? भगवान् के समष्टि वैभव को न केवल पहचान ही सकता है? वरन् स्वयं में ही उसका साक्षात् अनुभव भी कर सकता है। तब पाण्डव राजपुत्र के मुख पर उस अनुभव या पद को प्राप्त करने की उत्सुकता दिखाई दी। यद्यपि उसने स्पष्ट प्रश्न नहीं किया तथापि उसके मुख के भाव से ही उसे समझकर भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ वर्णन करते हैं कि कोई साधक जीवन में इस पूर्णत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है।किसी जीव को ईश्वरत्व प्राप्त करने का श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योजना के पांच अंग हैं। उन पांच अंगों या आवश्यक गुणों को इस श्लोक में बताया गया है। वे गुण हैं (1) जो ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करता है? (2) जिसका परम लक्ष्य ईश्वर ही है? (3) जो ईश्वर का भक्त है? (4) जो आसक्तियों से रहित है? तथा (5) जो भूतमात्र के प्रति वैरभाव से रहित है।इन पांच आवश्यक गुणों में आत्मसंयम की सम्पूर्ण साधना का सारांश दिया गया है। ईश्वर के अखण्ड स्मरण से ही समस्त उपाधियों के कर्मों में अनासक्ति का भाव दृढ़ होता है। किसी व्यक्ति के प्रति वैरभाव तभी होता है? जब हम उसे पराया समझते हैं। मेरे ही दोनों हाथों के मध्य कोई वैरभाव नहीं हो सकता। आत्मैकत्व के बोध से जब सर्वत्र एकता का दर्शन और अनुभव होता है? केवल तभी समस्त भूतों के प्रति पूर्ण निर्वैरभाव प्राप्त हो सकता है।मन और बुद्धि के स्तर पर सर्वथा अनासक्ति होना असंभव है। मन और बुद्धि किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति के बिना नहीं रह सकते हैं। इसलिए एक साधक? सर्वप्रथम? ईश्वरार्पण की भावना के द्वारा विषयासक्ति को त्यागना सीखता है? और तत्पश्चात् अपने मन को भक्ति के साथ ईश्वर में स्थित कर देता है। इस अंग की पूर्णता के लिए पूर्व कथित गुण निश्चय ही सहायक होते हैं।इस प्रकार? सम्पूर्ण योजना का पुनरावलोकन करने पर ज्ञात होगा कि वह पूर्ण मनोवैज्ञानिक होने के कारण सर्वथा स्वीकार्य है। प्रत्येक उत्तर अंग अपने पूर्व अंग से पोषित होता है। इस श्लोक से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि अध्यात्म के साधक की महान् पवित्र तीर्थयात्रा ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने से प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् स्वयं ईश्वर ही उसके जीवन का परम लक्ष्य बन जाता है। इसका परिणाम होगा ईश्वर के प्रति परम प्रेम। स्वाभाविक है कि जगत् की अनित्य? परिच्छिन्न वस्तुओं के साथ उसकी आसक्ति समाप्त हो जायेगी और वह आत्मा का दर्शन कर सकेगा। जब स्वयं आत्मस्वरूप ही बनकर वह स्वयं को सर्वत्र? सब भूतों में पहचानेगा? तब उसका किसी भी प्राणी से किसी प्रकार का वैर नहीं होगा।गीता के अनुसार साधना के द्वारा प्राप्त आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता की कसौटी है सबसे प्रेम और किसी से द्वेष नहीं होना।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का विश्वरूप दर्शनयोग नामक ग्यारहवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय का विश्वरूपदर्शनयोग यह नाम सार्थक है। वेदान्तशास्त्र की परिभाषिक शब्दावली के अनुसार यहाँ प्रयुक्त विश्वरूप शब्द का वास्तविक अर्थ विराट्रूप है। आत्मा एक व्यष्टि स्थूल देह के साथ तादात्म्य को प्राप्त होकर जाग्रत् अवस्था की घटनाओं का अनुभव करता है। इस अवस्था में स्थित आत्मा को वेदान्त में विश्व कहा जाता है। वही आत्मा समष्टि स्थूल देह अर्थात् ब्रह्माण्ड के साथ तादात्म्य प्राप्त कर विराट् कहलाता है। यद्यपि यहाँ भगवान् ने अपना विराट्रूप दिखाया है? तथापि इस अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शनयोग है। इससे विश्व और विराट् के पारमार्थिक एकत्व का बोध होता है।
Swami Ramsukhdas
।।11.55।। व्याख्या--[इस श्लोकमें पाँच बातें आयी हैं। इन पाँचोंको 'साधनपञ्चक' भी कहते हैं। इन पाँचों बातोंके दो विभाग हैं। (1) भगवान्के साथ घनिष्ठता और (2) संसारके साथ सम्बन्ध-विच्छेद। पहले विभागमें 'मत्कर्मकृत्', 'मत्परमः' और 'मद्भक्तः' -- ये तीन बातें हैं; और दूसरे विभागमें 'सङ्गवर्जितः' और'निर्वैरः सर्वभूतेषू'--ये दो बातें हैं। 'मत्कर्मकृत्'-- जो जप, कीर्तन, ध्यान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्मोंको और वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिके अनुसार प्राप्त लौकिक कर्मोंको केवल मेरे लिये ही अर्थात् मेरी प्रसन्नताके लिये ही करता है, वह 'मत्कर्मकृत्' ��ै। वास्तवमें देखा जाय तो कर्मके पारमार्थिक और लौकिक -- ये दो बाह्यरूप होते हैं, पर भीतरमें सब कर्म केवल भगवान्के लिये ही करने हैं -- ऐसा एक ही भाव रहता है, एक ही उद्देश्य रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो कुछ भी कर्म करता है, वह सब भगवान्के लिये ही करता है। कारण कि उसके पास शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, योग्यता, करनेकी सामर्थ्य, समझ आदि जो कुछ है, वह सब-की-सब भगवान्की ही दी हुई है और भगवान्की ही है, तथा वह स्वयं भी भगवान्का ही है। वह तो केवल भगवान्की प्रसन्नताके लिये, भगवान्की आज्ञाके अनुसार, भगवान्की दी हुई शक्तिसे निमित्तमात्र बनकर कार्य करता है। यही उसका 'मत्कर्मकृत्' होना है। 'मत्परमः' -- जो मेरेको ही परमोत्कृष्ट समझकर केवल मेरे ही परायण रहता है अर्थात् जिसका परम प्रापणीय, परम ध्येय, परम आश्रय केवल मैं ही हूँ, ऐसा भक्त 'मत्परमः' है। 'मद्भक्तः -- जो केवल मेरा ही भक्त है अर्थात् जिसने मेरे साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया है कि मैं केवल भगवान्का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं, तथा मैं अन्य किसीका भी नहीं हूँ और अन्य कोई भी मेरा नहीं है। ऐसा होनेसे भगवान्में अतिशय प्रेम हो जाता है; क्योंकि जो अपना होता है, वह स्वतः प्रिय लगता है। प्रेमकी जागृतिमें अपनापन ही मुख्य है।वह भक्त सब देशमें, सब कालमें, सम्पूर्ण वस्तुव्यक्तियोंमें और अपनेआपमें सदासर्वदा प्रभुको ही परिपूर्ण देखता है। इस दृष्टिसे प्रभु सब देशमें होनेसे यहाँ भी हैं, सब कालमें होनेसे अभी भी हैं, सम्पूर्ण वस्तुव्यक्तियोंमें होनेसे मेरेमें भी हैं और सबके होनेसे मेरे भी हैं -- ऐसा भाव रखनेवाला ही 'मद्भक्तः' है। 'सङ्गवर्जितः निर्वैरः सर्वभूतेषु यः' -- केवल भगवान्के लिये ही कर्म करनेसे, केवल भगवान्के ही परायण रहनेसे और केवल भगवान्का ही भक्त बननेसे क्या होता है इसका उपर्युक्त पदोंसे वर्णन करते हैं कि वह,'सङ्गवर्जितः' हो जाता है अर्थात् उसकी संसारमें आसक्ति, ममता और कामना नहीं रहती। आसक्ति, ममता और कामनासे ही संसारके साथ सम्बन्ध होता है। भगवान्में अनन्य प्रेम होते ही आसक्ति आदिका अत्यन्त अभाव हो जाता है।दूसरी बात, जब भक्तको मैं भगवान्का ही अंश हूँ -- इस वास्तविकताका अनुभव हो जाता है, तब उसका भगवान्में प्रेम जाग्रत् हो जाता है। प्रेम जाग्रत् होनेपर रागका अत्यन्त अभाव हो जाता है। रागका अत्यन्त अभाव होनेसे और सर्वत्र भगवद्भाव होनेसे उसके शरीरके साथ कोई कितना ही दुर्व्यवहार करे, उसको मारेपीटे, उसका अनिष्ट करे, तो भी उसके हृदयमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति किञ्चिन्मात्र भी वैरभाव उत्पन्न नहीं होता। वह उसमें भगवान्की ही मरजी, कृपा मानता है। ऐसे भक्तको भगवान्ने 'निर्वैरः सर्वभूतेषु' कहा है।'सङ्गवर्जितः' और 'निर्वैरः सर्वभूतेषु -- इन दोनोंका वर्णन करनेका तात्पर्य उसका संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है यह बतानेमें है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर स्वतःसिद्ध परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।स मामेति' -- ऐसा वह मेरा भक्त मेरेको ही प्राप्त हो जाता है। 'स मामेति' में तत्त्वसे जानना, दर्शन करना और प्राप्त होना -- ये तीनों ही बातें आ जाती हैं, जो कि पीछेके (चौवनवें) श्लोकमें बतायी गयी हैं। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्यसे मनुष्यजन्म हुआ है, वह उद्देश्य सर्वथा पूर्ण हो जाता है। विशेष बात श्रीभगवान्ने नवें अध्यायके अन्तमें कहा था -- 'मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।' मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। (9। 34)। ऐसा कहनेपर भी भगवान्के मनमें यह बात रह गयी कि मैं अपने रहस्यकी सब बात किस तरहसे, किस रीतिसे समझाऊँ इसीको समझानेके लिये भगवान्ने दसवाँ और ग्यारहवाँ अध्याय कहा है।जीवने उत्पत्तिविनाशशील और नित्य परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरसंसारका सहारा ले रखा है, जिससे यह अविनाशी और नित्य अपरिवर्तनशील भगवान्से विमुख हो रहा है। इस विमुखताको मिटाकर जीवको भगवान्के सम्मुख करनेमें ही इन दोनों -- दसवें और ग्यारहवें अध्यायका तात्पर्य है।इस मनुष्यके पास दो शक्तियाँ हैं -- चिन्तन करनेकी और देखनेकी। इनमेंसे जो चिन्तन करनेकी शक्ति, उसको भगवान्की विभूतियोंमें लगाना चाहिये। तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति आदिमें जो कुछ विशेषता, महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता दीखे और उसमें मन चला जाय, उस विशेषता आदिको भगवान्की ही मानकर वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये। इसके लिये भगवान्ने दसवाँ अध्याय कहा है।दूसरी जो देखनेकी शक्ति है, उसको भगवान्में लगाना चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे भगवान्के दिव्य अविनाशी विराट्रूपमें अनेक रूप हैं, अनेक आकृतियाँ हैं, अनेक तरहके दृश्य हैं, ऐसे ही यह संसार भी उस विराट्रूपका ही एक अङ्ग है और इसमें अनेक नाम, रूप, आकृति आदिके रूपमें परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं। इस दृष्टिसे सबको परमात्मस्वरूप देखे। इसके लिये भगवान्ने ग्यारहवाँ अध्याय कहा है।अर्जुनने भी इन दोनों दृष्टियोंके लिये दो बार प्रार्थना की है। दसवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें अर्जुनने कहा कि हे ! भगवन् मैं किन-किन भावोंमें आपका चिन्तन करूँ, तो भगवान्ने चिन्तनशक्तिको लगानेके लिये अपनी विभूतियोंका वर्णन किया। ग्यारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने कहा कि मैं आपके रूपको देखना चाहता हूँ' तो भगवान्ने अपना विश्वरूप दिखाया और उसको देखनेके लिये अर्जुनको दिव्यचक्षु दिये। तात्पर्य यह हुआ कि साधकको अपनी चिन्तन और दर्शन-शक्तिको भगवान्के सिवाय दूसरी किसी भी जगह खर्च नहीं करनी चाहिये अर्थात् साधक चिन्तन करे तो परमात्माका ही चिन्तन करे और जिस किसीको देखे तो उसको परमात्मस्वरूप ही देखे। इस प्रकार , तत्, सत्-- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें विश्वरूपदर्शनयोग नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।11।।
Swami Tejomayananda
।।11.55।। हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.55।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।11.55।।भक्त्या त्विति विशेषणादन्येषामहेतुत्वमाशङ्क्याह -- अधुनेति। समुच्चित्य संक्षिप्य पुञ्जीकृत्येति यावत्। मत्कर्मकृदित्युक्ते मत्परमत्वमार्थिकमिति पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह -- करोतीति। भगवानेव परमा गतिरिति निश्चयवतस्तत्रैव निष्ठा सिध्यतीत्याह -- तथेति। न तत्रैव सर्वप्रकारैर्भजनं धनादिस्नेहाकृष्टत्वादित्याशङ्क्याह -- सङ्गेति। द्वेषपूर्वकानिष्टाचरणं वैरमनपकारिषु तदभावेऽपि भवत्येवापकारिष्विति शङ्कित्वाह -- आत्मन इति। एतच्च सर्वं संक्षिप्यानुष्ठानार्थमुक्तमेवमनुतिष्ठतो भगवत्प्राप्तिरवश्यंभाविनीत्युपसंहरति -- अयमिति। तदेवं भगवतो विश्वरूपस्य सर्वात्मनः सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य मत्कर्मकृदित्यादिन्यायेन क्रममुक्तिफलमभिध्यानमभिवदता तत्पदवाच्योऽर्थो व्यवस्थापितः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ एकादशोऽध्यायः।।11।।
Sri Vallabhacharya
।।11.55।।यद्यप्येवं तथापि त्वादृशस्य मन्निगममर्यादायामनुगृहीतत्वान्मदाज्ञया मद्भक्तिपूर्वकमेव स्वधर्मकरणे मत्प्राप्तिरित्याह -- मत्कर्मकृदिति। भगवदीयस्य भगवत्सेवापूर्वककर्मकरणं विहितंमम कर्मकरणे प्रभोरिच्छाऽस्तीति यो निर्द्धारयति स करोति? य एतद्विपरीतं स न करोति? यथा शुकजडादिः। एतन्निर्द्धारश्च भगवदधीनोऽतो भक्तेष्वपि तन्निर्द्धारणानियम इत्यतः कर्म कर्त्तव्यमेव अतन्निर्द्धारणे त्वाधुनिकानाम् एवं सतीच्छाज्ञानवता तत्सन्देहवता च कर्त्तव्यं इति।तन्निर्द्धारणानियमः पृथग्यः प्रतिबन्धः फलं इत्यादि सूत्रभाष्ये निर्णीतमवगन्तव्यम्। मत्परम इति अहमेव परम उद्देश्यो यस्य परमो मद्भक्तः स मामेति पुरुषोत्तमाप्तिस्तस्य फलं भवतीत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।11.55।। अतः सर्वशास्त्रसारं परमं रहस्यं शृण्वित्याह -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं कर्म करोतीति मत्कर्मकृत्? अहमेव परमः पुरुषार्थो यस्य सः? ममैव भक्तो मामेवाश्रितः? पुत्रादिषु सङ्गवर्जितो? निर्वैरश्च सर्वभूतेषु एवंभूतो यः स मां प्राप्नोति नान्य इति।