Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 32 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
श्रीभगवानुवाच | कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः | ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ||११-३२||
Transliteration
śrībhagavānuvāca . kālo.asmi lokakṣayakṛtpravṛddho lokānsamāhartumiha pravṛttaḥ . ṛte.api tvāṃ na bhaviṣyanti sarve ye.avasthitāḥ pratyanīkeṣu yodhāḥ ||11-32||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.32 The Blessed Lord said I am the full-grown world-destroying Time, now engaged in destroying the worlds. Even without thee, none of the warriors arrayed in the hostile armies shall live.
।।11.32।। श्रीभगवान् ने कहा -- मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ। जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं, वे सब तुम्हारे बिना भी नहीं रहेंगे।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, understand that while your effort is crucial, certain outcomes (e.g., market shifts, company decisions, industry disruptions) are influenced by larger forces beyond your immediate control. Focus on performing your role with dedication and excellence, rather than being overly anxious about results, which are part of an inevitable cosmic or systemic flow. This perspective can help you navigate corporate changes or project failures with greater resilience, recognizing your instrumentality within a broader context.
🧘 For Stress & Anxiety
To alleviate stress and anxiety, recognize that not all events or their ultimate outcomes are solely dependent on your individual will. Surrender to the understanding that 'Time' (or the forces of destiny/karma) has its own momentum. This helps in letting go of excessive guilt over past events and reduces the burden of trying to control every future variable. Embrace the impermanence of situations and the natural cycles of change, fostering acceptance and inner peace.
❤️ In Relationships
In relationships, acknowledge that some dynamics or eventual changes, including their beginnings and endings, are part of a larger unfolding that transcends individual desires. While you must act with integrity and love, release the need to control the ultimate trajectory of a relationship or the choices of others. This understanding can reduce heartache, foster acceptance in the face of unavoidable separations or conflicts, and allow you to focus on your authentic contribution without attachment to specific results.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Act as an instrument of divine will, for outcomes are ultimately beyond individual control and part of an inevitable cosmic plan.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.32 कालः time? अस्मि (I) am? लोकक्षयकृत् worlddestroying? प्रवृद्धः fullgrown? लोकान् the worlds? समाहर्तुम् to destroy? इह here? प्रवृत्तः engaged? ऋते without? अपि also? त्वाम् thee? न not? भविष्यन्ति shall live? सर्वे all? ये these? अवस्थिताः arrayed? प्रत्यनीकेषु in hostile armies? योधाः warriors.Commentary Even without thee Even if thou? O Arjuna? wouldst not fight? these warriors are doomed to die under My dispensation. I am the alldestroying Time. I have already slain them. You have seen them dying. Therefore thy instrumentality is not of much importance.Such being the case? therefore? stand up and obtain fame.
Shri Purohit Swami
11.32 Lord Shri Krishna replied: I have shown myself to thee as the Destroyer who lays waste the world and whose purpose is destruction. In spite of thy efforts, all these warriors gathered for battle shall not escape death.
Dr. S. Sankaranarayan
11.32. The Bhagavat said I am the Time, the world-destroyer, engaged here in withdrawing the worlds that are overgrown; even without you (your fighting) all the warriors, standing in the rival armies, would cease to be.
Swami Adidevananda
11.32 The Lord said I am the world-destroying Time. Manifesting Myself fully, I have begun to destroy the worlds here. Even without You, none of the warriors arrayed in the hostile ranks shall survive.
Swami Gambirananda
11.32 The Blessed Lord said I am the world-destroying Time, [Time: The supreme God with His limiting adjunct of the power of action.] grown in stature [Pravrddhah, mighty-according to S.-Tr.] and now engaged in annihilating the creatures. Even without you, all the warriors who are arrayed in the confronting armies will cease to exist!
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.32।। किसी वस्तु की एक अवस्था का नाश किये बिना उसका नवनिर्मांण नहीं हो सकता। निरन्तर नाश की प्रक्रिया से ही जगत् का निर्माण होता है। बीते हुये काल के शवागर्त से ही वर्तमान आज की उत्पत्ति हुई है। इस रचनात्मक विनाश के पीछे जो शक्ति दृश्य रूप में कार्य कर रही है वही मूलभूत शक्ति है जो प्राणियों के जीवन के ऊपर शासन कर रही है। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्वयं का परिचय लोक संहारक महाकाल के रूप में कराते हैं। इस रूप को धारण करने का उनका प्रयोजन उस पीढ़ी को नष्ट करना है? जो अपने जीवन लक्ष्य के सम्बन्ध में विपरीत धारणाएं तथा दोषपूर्ण जीवन मूल्यों को रखने के कारण जीर्णशीर्ण हो गई है।भगवान् का लोकसंहारकारी भाव उनके लोककल्याणकारी भाव का विरोधी नहीं है। कभीकभी विनाश करने में दया ही होती है। एक टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। उन्हें तोड़कर गिराना दया का ही एक कार्य है? जो कोई भी विचारशील शासन समाज के लिए कर सकता है। यही सिद्धांत यहाँ पर लागू होता है।इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् के इस कथन से अर्जुन के विजय की आशा विश्वास में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। वही समाज में इस पुनरुत्थान और पुनर्जीवन को लायेगा। सार्वभौमिक पुनर्वास के इस अतिविशाल कार्य में व्यष्टि जीवमात्र भाग्य के प्राणी हैं। उनके होने या नहीं होने पर भी काल की योजना निश्चित ही काय्ार्ान्वित होकर रहेगी। राष्ट्र के लिए यह पुनर्जीवन आवश्यक है मानव के पुनर्वास की मांग जगत् की है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि? तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा।महाभारत की कथा के सन्दर्भ में? भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है? और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन? निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है।इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे।
Swami Ramsukhdas
।।11.32।। व्याख्या --[भगवान्का विश्वरूप विचार करनेपर बहुत विलक्षण मालूम देता है; क्योंकि उसको देखनेमें अर्जुनकी दिव्यदृष्टि भी पूरी तरहसे काम नहीं कर रही है और वे विश्वरूपको कठिनतासे देखे जानेयोग्य बताते हैं --'दुर्निरीक्ष्यं समन्तात्' (11। 17)। यहाँ भी वे भगवान्से पूछ बैठते हैं कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? ऐसा मालूम देता है कि अगर अर्जुन भयभीत होकर ऐसा नहीं पूछते तो भगवान् और भी अधिक विलक्षणरूपसे प्रकट होते चले जाते। परन्तु अर्जुनके बीचमें ही पूछनेसे भगवान्ने और आगेका रूप दिखाना बन्द कर दिया और अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देने लगे।] 'कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धः'-- पूर्वश्लोकमें अर्जुनने पूछा था कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं --,'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपः' उसके उत्तरमें विराट्रूप भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण लोकोंका क्षय (नाश) करनेवाला बड़े भयंकर रूपसे बढ़ा हुआ अक्षय काल हूँ।'लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः' -- अर्जुने पूछा था कि मैं आपकी प्रवृत्तिको नहीं जान रहा हूँ --'न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्' अर्थात् आप यहाँ क्या करने आये हैं? उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि मैं इस समय दोनों सेनाओंका संहार करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ। 'ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः'--तुमने पहले यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा --'न योत्स्ये' (2। 9), तो क्या तुम्��ारे युद्ध किये बिना ये प्रतिपक्षी नहीं मरेंगे? अर्थात् तुम्हारे युद्ध करने और न करनेसे कोई फरक नहीं पड़ेगा। कारण कि मैं सबका संहार करनेके लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। यह बात तुमने विराट्रूपमें भी देख ली है कि तुम्हारे पक्षकी और विपक्षकी दोनों सेनाएँ मेरे भयंकर मुखोंमें प्रविष्ट हो रही हैं।यहाँ एक शङ्का होती है कि अर्जुनने अपनी और कौरवपक्षकी सेनाके सभी लोगोंको भगवान्के मुखोंमें जाकर नष्ट होते हुए देखा था, तो फिर भगवान्ने यहाँ केवल प्रतिपक्षकी ही बात क्यों कही कि तुम्हारे युद्ध,किये बिना भी ये प्रतिपक्षी नहीं रहेंगे? इसका समाधान है कि अगर अर्जुन युद्ध करते तो केवल प्रतिपक्षियोंको ही मारते और युद्ध नहीं करते तो प्रतिपक्षियोंको नहीं मारते। अतः भगवान् कहते हैं कि तुम्हारे मारे बिना भी ये प्रतिपक्षी नहीं बचेंगे; क्योंकि मैं कालरूपसे सबको खा जाऊँगा। तात्पर्य यह है कि इन सबका संहार तो होनेवाला ही है, तुम केवल अपने युद्धरूप कर्तव्यका पालन करो। एक शङ्का यह भी होती है कि यहाँ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि प्रतिपक्षके योद्धालोग तुम्हारे युद्ध किये बिना भी नहीं रहेंगे? फिर इस युद्धमें प्रतिपक्षके अश्वत्थामा आदि योद्धा कैसे बच गये? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान्ने उन्हीं योद्धाओंके मरनेकी बात कही है, जिसको अर्जुन मार सकते हैं और जिनको अर्जुन आगे मारेंगे। अतः भगवान्के कथनका तात्पर्य है कि जिन योद्धाओंको तुम मार सकते हो, वे सभी तुम्हारे मारे बिना ही मर जायँगे। जिनको तुम आगे मारोगे, वे मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं -- 'मयैवैते निहताः पूर्वमेव' (11। 33)। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा था कि तुम्हारे मारे बिना भी ये प्रतिपक्षी योद्धा नहीं रहेंगे। ऐसी स्थितिमें अर्जुनको क्या करना चाहिये -- इसका उत्तर भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.32।। श्रीभगवान् ने कहा -- मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ। जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं, वे सब तुम्हारे बिना भी नहीं रहेंगे।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.32।।कालशब्दो जगद्बन्धनच्छेदनज्ञानादिसर्वभगवद्धर्मवाची। कल बन्धने? कल च्छेदने? कल ज्ञाने?,कल कामधेनुरिति पठन्ति। प्रसिद्धश्च स शब्दो भगवति।नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे। अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य हरति प्रजाः। बद्ध्वा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा इति मोक्षधर्मे। विष्णुना बद्धो बलिर्वक्तिविष्णौ चाधीश्वरे (त्र्यधीश्वरे) चित्तं धारयन् (येत्) कालविग्रहे [11।15।15] इति भागवते। प्रवृद्धः परिपूर्णोऽनादिर्वा। ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् [ऋक्सं.8।8।49।1म.ना.6।1] इति हि श्रुतिः। एतत् (इदं) महद्भूतम् [बृ.उ.2।4।12] इति च।प्र विष्णुरस्तु तवसः स्तवीयांस्त्वेषं ह्यस्य स्थविरस्य नाम [ऋक्सं.5।6।25।3] इति च? न तु वर्धनम्।नासौ जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ इति हि भागवते।यस्य दिव्यं हि तद्रूपं हीयते वर्धते न च इति मोक्षधर्मे। न कर्मणा [बृ.उ.4।4।23] इति तु कर्मणाऽपि न? किमु स्वयं इति। लोकान्समाहर्तुमिह विशेषेण प्रवृत्तः। भ्रात्रादींश्च ऋते इत्यपिशब्दः। प्रत्यनीकत्वं तु परस्परतया। सर्वेऽपि न भविष्यन्ति? अक्षौहिण्यादिभेदेन बहुवचनं युक्तम्।
Sri Anandgiri
।।11.32।।स्वयं यदर्था च स्वप्रवृत्तिः तत्सर्वं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। कालः क्रियाशक्त्युपहितः परमेश्वरः? अस्मिन्निति वर्तमानयुद्धोपलक्षितत्वं कालस्य विवक्षितम्। लोकसंहारार्थं त्वत्प्रवृत्तावपि नासावर्थवती प्रतिपक्षाणां भीष्मादीनां मत्प्रवृत्तिं विना संहर्तुमशक्यत्वादित्याशङ्क्याह -- ऋतेऽपीति।
Sri Vallabhacharya
।।11.32।।एवं प्रार्थितः श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीति त्रिभिः। योऽधुनाऽऽविर्भूतः स कालोऽहम्। चतुर्धा ह्यहं अक्षरकालकर्मस्वभावभेदादित्यक्षरमपि लेलिहानत्वादिधर्मवत्त्वेन लिङ्गेन मां कालरूपमवेहि। यथोक्तं श्रीभागवते -- अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः। समन्वेत्येष सत्त्वेन (सत्त्वानां) भगवानात्ममायया। तथावीर्याणि तस्याखिलदेहभाजामन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः। प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् [भाग.10।1।7] कालरूपतयाऽसुरावेशिनां मृत्युहेतुरित्याह -- लोकानसुरावेशिन इह समाहर्त्तुं प्रवृत्त इति। अयमेव सङ्कर्षणभावः प्रदर्श्यते भ��वता। संहारको हि सङ्कर्षणव्यूहः तत्केशस्य भगवत्स्वरूपेऽवतरणं भूमौ भारहरणार्थमिति भारते निरूप्यते। तथा च भूभारभूतानामेव संहारकः कालः प्रवृत्तोऽस्मि।ऋतेऽपि त्वां इत्युपलक्षणं मदनुगृहीतान्विना सर्वान्समाहर्तुं प्रवृत्तोऽस्मीत्यर्थः। त्वा हनननिमित्तभूतं विना न जीविष्यन्तीति वा सम्बन्धः। हे पार्थ त्वया न हन्तव्याश्चेन्मया कालरूपेण तु ग्रस्ताः तिरोभावं यास्यन्तीत्यभिप्रायेणन भविष्यन्ति इति प्रत्युक्तम्।
Sridhara Swami
।।11.32।।एवं प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीति त्रिभिः। लोकानां क्षयकर्ता प्रवृद्धोऽत्युग्रः कालोऽस्मि। लोकान्प्राणिनः संहर्तुमिह लोके प्रवृत्तोऽस्मि। अतः। ऋतेऽपि त्वामिति। त्वां हन्तारं विनापि न भविष्यन्ति न जीविष्यन्ति। यद्यपि त्वया न हन्तव्या एते तथापि मया कालात्मना ग्रस्ताः सन्तो मरिष्यन्त्येव। के ते। प्रत्यनीकेषु अनीकान्यनीकानि प्रति भीष्मद्रोणादीनां सर्वासु सेनासु ये योद्धारोऽवस्थितास्ते सर्वेऽपि।