Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 3 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर | द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ||११-३||
Transliteration
evametadyathāttha tvamātmānaṃ parameśvara . draṣṭumicchāmi te rūpamaiśvaraṃ puruṣottama ||11-3||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.3 (Now) O Supreme Lord, as Thou hast thus described Thyself, O Supreme Person, I wish to see Thy divine form.
।।11.3।। हे परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक ऐसा ही है। (परन्तु) हे पुरुषोत्तम ! मैं आपके ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, after understanding a concept or strategy theoretically, actively seek opportunities for direct observation or hands-on experience to validate and deepen your understanding. Don't just rely on reports; witness the process, interact with beneficiaries, or see the impact firsthand to gain true insight and conviction, much like Arjuna seeking to behold the divine form after hearing about it.
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When faced with overwhelming information or abstract advice (e.g., 'things will get better'), actively seek tangible proof or personal experience that can validate these truths for you. Practice mindfulness or specific coping mechanisms to personally experience their effects, rather than just knowing about them, thereby reducing stress rooted in theoretical worries and fostering a deeper sense of calm.
❤️ In Relationships
Beyond verbal affirmations, seek and acknowledge consistent actions that validate the sentiments expressed by others. In relationships, actively strive to observe behaviors that align with declarations of trust, love, or commitment, moving beyond mere words to a deeper, experiential understanding and strengthening the bond through tangible proof of care.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True understanding and profound conviction arise not just from intellectually accepting a truth, but from actively seeking and experiencing its direct manifestation.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.3 एवम् thus? एतत् this? यथा as? आत्थ hast declared? त्वम् Thou? आत्मानम् Thyself? परमेश्वर O Supreme Lord? द्रष्टुम् to see? इच्छामि (I) desire? ते Thy? रूपम् form? ऐश्वरम् sovereign? पुरुषोत्तम O Supreme Purusha.Commentary Some commentators take the two halves of this verse as two independent sentences and interpret it thusSo it is? O Supreme Lord? as Thou hast declared Thyself to be. (But still) I desire to see Thy form as Isvara? O Supreme Person.Rupamaisvaram Thy form as Isvara? that of Vishnu as possessed of infinite knowledge? sovereignty? power? strength? prowess and splendour.
Shri Purohit Swami
11.3 I believe all as Thou hast declared it. I long now to have a vision of thy Divine Form, O Thou Most High!
Dr. S. Sankaranarayan
11.3. As You describe Yourself as the Supreme Lord [of all], it must be so. [Hence], O Supreme Self, I desire to perceive Your Lordly form.
Swami Adidevananda
11.3 O Supreme Lord, how You described Yourself, even so are You. I wish to see Your Lordly form, O Supreme Person.
Swami Gambirananda
11.3 O supreme Lord, so it is, as You speak about Yourself. O supreme Person, I wish to see the divine form of Yours.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.3।। संस्कृत से वाक्प्रचार एवमेतत् (यह ठीक ऐसा ही है) के द्वारा अर्जुन तत्त्वज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष को स्वीकार करता है। समस्त नाम और रूपों में ईश्वर की व्यापकता की सिद्धि बौद्धिक दृष्टि से संतोषजनक थी। फिर भी बुद्धि को अभी भी प्रत्यक्षीकरण की प्रतीक्षा थी। इसलिए अर्जुन कहता है कि? मैं आपके ईश्वरीय रूप को देखना चाहता हूँ। हमारे शास्त्रों में ईश्वर का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वह ज्ञान? ऐश्वर्य? शक्ति? बल? वीर्य और तेज इन छ गुणों से सम्पन्न है।इस अवसर पर भगवान् ने अर्जुन को यह दर्शाने का निश्चय किया कि वे न केवल समस्त व्यष्टि रूपों में व्याप्त हैं वरन् वे वह समष्टिरूपी पात्र हैं? जिसमें ही समस्त नाम और रूपों का अस्तित्व है। भगवान् सर्वव्यापक होने के साथहीसाथ सर्वातीत भी हैं।यद्यपि कट्टर बुद्धिवाद के अत्युत्साह में आकर अर्जुन ने विश्वरूप दर्शन की अपनी मांग भगवान् के समक्ष रखी? किन्तु उसे तत्काल यह भान हुआ कि उसकी यह धृष्टता है और उसने सद्व्यवहार की मर्यादा का उल्लंघन किया है।अगले श्लोक में वह अधिक नम्रता से कहता है
Swami Ramsukhdas
।।11.3।। व्याख्या --'पुरुषोत्तम'--यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि हे भगवन् !मेरी दृष्टिमें इस संसारमें आपके समान कोई उत्तम, श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् आप ही सबसे उत्तम, श्रेष्ठ हैं। इस बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने भी कहा है कि मैं क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हूँ; अतः मैं शास्त्र और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ (15। 18)।'एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानम्'--हे पुरुषोत्तम !आपने (सातवें अध्यायसे दसवें अध्यायतक) मेरे प्रति अपने अलौकिक प्रभावका, सामर्थ्यका जो कुछ वर्णन किया, वह वास्तवमें ऐसा ही है। यह संसार मेरेसे ही उत्पन्न होता है और मेरेमें ही लीन हो जाता है (7। 6), मेरे सिवाय इसका और कोई कारण नहीं है (7। 7), सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19), ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञरूपमें मैं ही हूँ (7। 29 30)? अनन्य भक्तिसे प्रापणीय परम तत्त्व मैं ही हूँ (8। 22), मेरेसे ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, पर मैं संसारमें और संसार मेरेमें नहीं है (9। 4 5), सत् और असत्रूपसे सब कुछ मैं ही हूँ (9 19), मैं ही संसारका मूल कारण हूँ और मेरेसे ही सारा संसार सत्ता-स्फूर्ति पाता है (10। 8), यह सारा संसार मेरे ही किसी एक अंशमें स्थित है (10। 42) आदि-आदि। अपने-आपको आपने जो कुछ कहा है, वह सब-का-सब यथार्थ ही है। 'परमेश्वर'--भगवान्के मुखसे अर्जुनने पहले सुना है कि 'मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंका और सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर हूँ-- 'भूतानामीश्वरोऽपि' (4। 6) ;'सर्वलोकमहेश्वरम्' (5। 29)। इसलिये अर्जुन यहाँ भगवान्के विलक्षण प्रभावसे प्रभावित होकर उनके लिये 'परमेश्वर' सम्बोधन देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि हे भगवन् वास्तवमें आप ही परम ईश्वर हैं, आप ही सम्पूर्ण ऐश्वर्यके मालिक हैं।'द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरम्' -- अर्जुन कहते हैं कि मैंने आपसे आपका माहात्म्यसहित प्रभाव सुन लिया है और इस विषयमें मेरे हृदयमें दृढ़ विश्वास भी हो गया है। 'सम्पूर्ण संसार मेरे शरीरके एक अंशमें है' -- इसे सुनकर मेरे मनमें आपके उस रूपको देखनेकी उत्कट लालसा हो रही है।दूसरा भाव यह है कि आप इतने विलक्षण और महान् होते हुए भी मेरे साथ कितना स्नेह रखते हैं, कितनी आत्मीयता रखते हैं कि मैं जैसा कहता हूँ, वैसा ही आप करते हैं और जो कुछ पूछता हूँ, उसका आप उत्तर देते हैं। इस कारण आपसे कहनेका, पूछनेका किञ्चिन्मात्र भी संकोच न होनेसे मेरे मनमें आपका वह रूप देखनेकी बहुत इच्छा हो रही है, जिसके एक अंशमें सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। दसवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें अर्जुने कहा था कि आप अपनी पूरी-की-पूरी विभूतियाँ कह दीजिये, बाकी मत रखिये --'वक्तुमर्हस्यशेषेण' तो भगवान्ने विभूतियोंका वर्णन करते हुए उपक्रममें और उपसंहारमें कहा कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है (10। 19, 40)। इसलिये भगवान्ने विभूतियोंका वर्णन संक्षेपसे ही किया। परन्तु यहाँ जब अर्जुन कहते हैं कि मैं आपके एक रूपको देखना चाहता हूँ -- 'द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्', तब भगवान् आगे कहेंगे कि तू मेरे सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख (11। 5)। जैसे संसारमें कोई किसीसे लालचपूर्वक अधिक माँगता है, तो देनेवालेमें देनेका भाव कम हो जाता है और वह कम देता है। इसके विपरीत यदि कोई संकोचपूर्वक कम माँगता है, तो देनेवाला उदारतापूर्वक अधिक देता है। ऐसे ही वहाँ अर्जुनने स्पष्टरूपसे कह दिया कि आप सब-की-सब विभूतियाँ कह दीजिये तो भगवान्ने कहा कि मैं अपनी विभूतियोंको संक्षेपसे कहूँगा। इस बातको लेकर अर्जुन सावधान हो जाते हैं कि अब मेरे कहनेमें ऐसी कोई अनुचित बात न आ जाय। इसलिये अर्जुन यहाँ संकोचपूर्वक कहते हैं कि अगर मेरे द्वारा आपका विराट्रूप देखा जा सकता है तो दिखा दीजिये। अर्जुनके इस संकोचको देखकर भगवान् बड़ी उदारतापूर्वक कहते हैं कि तू मेरे सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख ले।दूसरा भाव यह है कि अर्जुनके रथमें एक जगह बैठे हुए भगवान्ने यह कहा कि 'तू जो मेरे इस शरीरको देख रहा है, इसके किसी एक अंशमें सम्पूर्ण जगत् (जिसके अन्तर्गत अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड हैं) व्याप्त है।' तात्पर्य है कि भगवान्का छोटा-साशरीर है और उस छोटे-से शरीरके किसी एक अंशमें सम्पूर्ण जगत् है। अतः उस एक अंशमें स्थित रूपको मैं देखना चाहता हूँ -- यही अर्जुनके 'रूपम्' (एक रूप) कहनेका आशय मालूम देता है।
Swami Tejomayananda
।।11.3।। हे परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक ऐसा ही है। (परन्तु) हे पुरुषोत्तम ! मैं आपके ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.3।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।11.3।।त्वदुक्तेऽर्थे विश्वासाभावान्न तस्य दिदृक्षा किंतु कृतार्थीबुभूषयेत्याह -- एवमेतदिति। येन प्रकारेण सोपाधिकेन निरुपाधिकेन चेत्यर्थः। यदि ममाप्तत्वं निश्चित्य मद्वाक्यं ते मानं तर्हि किमिति मदुक्तं दिदृक्षते कृतार्थीबुभूषयेत्युक्तं मत्वाह -- तथापीति। चतुर्भुजादिरूपनिवृत्त्यर्थमाह -- ऐश्वरमिति। तद्व्याचष्टे -- ज्ञानेत्यादिना।
Sri Vallabhacharya
।।11.3।।एवमेतदिति। सत्यमेवैतत्? अत्राविश्वासो मम नास्तीति। परं तादृश्यैश्वर्यं योगाख्यं यत्र तत्तवैश्वरं रूपं द्रष्टुमिच्छामि। हे पुरुषोत्तम नहि मादृशस्त्वयि सति न सिद्धमनोरथो भवितुमर्हतीति भावः।
Sridhara Swami
।।11.3।। किंच -- एवमिति।भवाप्ययौ हि भूतानाम् इत्यादि मया श्रुतं यथा चेदानीमात्मानं त्वमात्थविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम् इत्येवं कथयसि हे परमेश्वर? एवमेतत्। अत्राप्यविश्वासो मम नास्तीत्यर्थः। तथापि हे पुरुषोत्तम्? तवैश्वरं ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः संपन्नं त्वद्रूपं कौतूहलादहं द्रष्टुमिच्छामि।