Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 20 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Omnipresence

Sanskrit Shloka (Original)

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः | दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||११-२०||

Transliteration

dyāvāpṛthivyoridamantaraṃ hi vyāptaṃ tvayaikena diśaśca sarvāḥ . dṛṣṭvādbhutaṃ rūpamugraṃ tavedaṃ lokatrayaṃ pravyathitaṃ mahātman ||11-20||

Word-by-Word Meaning

द्यावापृथिव्योःof heaven and earth
इदम्this
अन्तरम्interspace
हिindeed
व्याप्तम्is filled
त्वयाby Thee
एकेनalone
दिशःarters
and
सर्वाःall
दृष्ट्वाhaving seen
अद्भुतम्wonderful
रूपम्form
उग्रम्terrible
तवThy
इदम्this
लोकत्रयम्the three worlds
प्रव्यथितम्are trembling with fear

📖 Translation

English

11.20 This space between the earth and the heaven and all the arters are filled by Thee alone; having seen this, Thy wonderful and teriible form, the three worlds are trembling with fear, O great-souled Being.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।11.20।। हे महात्मन् ! स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं; आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In the workplace, understanding the 'cosmic form' of an organization or industry means grasping its vast interconnectedness, the immense forces at play beyond individual control, and the potential impact of one's contributions within a larger system. This perspective can foster both humility (recognizing one's small part) and purpose (seeing how one's work contributes to the 'whole'), helping to navigate overwhelming challenges or inspire grander visions, much like Arjuna seeing the ultimate power behind his war.

🧘 For Stress & Anxiety

When overwhelmed by stress or anxiety, contemplating the 'all-pervading' nature of reality can put personal problems into profound perspective. Realizing that one is part of an immense, powerful, and ultimately ordered universe can reduce the burden of needing to control every outcome. While initially awe-inspiring or even frightening, this realization can lead to a surrender of individual ego, fostering humility and a sense of belonging to something far greater, thereby alleviating anxiety caused by isolation or perceived lack of control.

❤️ In Relationships

Applying the concept of divine omnipresence to relationships means recognizing that every individual, every interaction, and every shared space is permeated by this same universal essence. This fosters profound respect, empathy, and a sense of interconnectedness, transcending petty squabbles and ego conflicts. It encourages seeing others not just as separate entities, but as manifestations within the vast, awe-inspiring tapestry of existence, leading to deeper understanding and more compassionate interactions.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Confronting the boundless, awe-inspiring, and all-pervading power of the Divine puts all of existence, including our personal struggles, into profound and humbling perspective, compelling us to transcend ego and embrace a cosmic view.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

11.20 द्यावापृथिव्योः of heaven and earth? इदम् this? अन्तरम् interspace? हि indeed? व्याप्तम् is filled? त्वया by Thee? एकेन alone? दिशः arters? च and? सर्वाः all? दृष्ट्वा having seen? अद्भुतम् wonderful? रूपम् form? उग्रम् terrible? तव Thy? इदम् this? लोकत्रयम् the three worlds? प्रव्यथितम् are trembling with fear? महात्मन् O greatsouled Being.Commentary Thee In Thy Cosmic Form.The space and the arters This denotes that the Lord has filled the whole universe of animate and inanimate objects.In order to remove the doubt entertained by Arjuna as to his success (Cf.II.6) Lord Krishna makes him feel now that victoyr for the Pandavas is certain.

Shri Purohit Swami

11.20 Alone thou fillest all the quarters of the sky, earth and heaven, and the regions between. O Almighty Lord! Seeing Thy marvellous and awe-inspiring Form, the spheres tremble with fear.

Dr. S. Sankaranarayan

11.20. This space in between the heaven and the earth as well as all the directions are pervaded singly by You; seeing this wondrous form of Yours as such, O Exalted Soul, the triple world is very much frightened.

Swami Adidevananda

11.20 You alone have pervaded the interspace between heaven and earth, and all the arters. Beholding Your marvellous and terrible form, O Mahatman, the three worlds are greatly overwhelmed with fear.

Swami Gambirananda

11.20 Indeed, this intermediate space between heaven and earth as also all the directions are pervaded by You alone. O exalted One, the three worlds are struck with fear by seeing this strange, fearful form of Yours.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।11.20।। विराट् पुरुष समस्त जगत् को व्याप्त किये हुए है? और देशकाल का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वे भी इस सत्य पर ही आश्रित हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ वर्णित विषयवस्तु अनन्त है? सनातन है। इसीलिए यहाँ अर्जुन कहता है? अकेले आपके द्वारा स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का आकाश और समस्त दिशाएं व्याप्त हैं।विश्व की एकता को सरलता से ग्रहण नहीं किया जा सकता। जो जितना ही अधिक उसे समझता है? उसका वर्णन करने में उतना ही अधिक वह लड़खड़ाता है। इतने विशाल और भव्य सत्य को देखकर परिच्छिन्न बुद्धि का कम्पित हो जाना स्वाभाविक ही है।अर्जुन कहता है? इस अद्भुत और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक भय कम्पित हो रहे हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जगत् को उसी रूप में देखता है जैसा कि वह स्वयं होता है। यथा दृष्टि तथा सृष्टि। विराट् का दर्शन करके अर्जुन भयभीत हुआ और उस मनस्थिति में जब वह जगत् को देखता है? तो तीनों लोक भी विस्मित और भय कम्पित दिखाई देते हैं। व्यासजी की यह विशेषता है कि विशाल और गम्भीर विषयवस्तु के वर्णन में व्यस्त होते हुए भी वे मनुष्य के मूलभूत आचरण को भूलते नहीं हैं और उनके ये सूक्ष्म निरीक्षण ही इस अतुलनीय सौन्दर्य और अपरिमेय गम्भीर चित्र को वास्तविकता की आभा प्रदान करते हैं।

Swami Ramsukhdas

।।11.20।। व्याख्या--'महात्मन्'-- इस सम्बोधनका तात्पर्य है कि आपके स्वरूपके समान किसीका स्वरूप हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये आप महात्मा अर्थात् महान् स्वरूपवाले हैं।   'द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः'-- स्वर्ग और पृथ्वीके बीचमें जितना अवकाश है, पोलाहट है, वह सब पोलाहट आपसे परिपूर्ण हो रही है।पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण पूर्वउत्तरके बीचमें 'ईशान', उत्तर-पश्चिमके बीचमें 'वायव्य', पश्चिम-दक्षिणके बीचमें 'नैऋर््त्य' और दक्षिण-पूर्वके बीचमें 'आग्नेय' तथा ऊपर और नीचे -- ये दसों दिशाएँ आपसे व्याप्त हैं अर्थात् इन सबमें आप-ही-आप विराजमान हैं।    'दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितम्' -- [उन्नीसवें श्लोकमें तथा बीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें उग्ररूपका वर्णन करके अब बीसवें श्लोकके उत्तरार्धसे बाईसवें श्लोकतक अर्जुन उग्ररूपके परिणामका वर्णन करते हैं -- ] आपके इस अद्भुत, विलक्षण, अलौकिक, आश्चर्यजनक, महान् देदीप्यमान और भयंकर उग्ररूपको देखकर स्वर्ग, मृत्यु और पाताललोकमें रहनेवाले सभी प्राणी व्यथित हो रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं। यद्यपि इस श्लोकमें स्वर्ग और पृथ्वीकी ही बात आयी है (द्यावापृथिव्योः), तथापि अर्जुनद्वारा 'लोकत्रयम्' कहनेके अनुसार यहाँ पाताल भी ले सकते हैं। कारण कि अर्जुनकी दृष्टि भगवान्के शरीरके किसी एक देशमें जा रही है और वहाँ अर्जुनको जो दीख रहा है, वह दृश्य कभी पातालका है, कभी मृत्युलोकका है और कभी स्वर्गका है। इस तरह अर्जुनकी दृष्टिके सामने सब दृश्य बिना क्रमके आ रहे हैं (टिप्पणी प0 586.2)।,यहाँपर एक शङ्का होती है कि अगर विराट्रूपको देखकर त्रिलोकी व्यथित हो रही है, तो दिव्यदृष्टिके बिना त्रिलोकीने विराट्रूपको कैसे देखा? भगवान्ने तो केवल अर्जुनको दिव्यदृष्टि दी थी। त्रिलोकीको विराट्रूप देखनेके लिये दिव्यदृष्टि किसने दी? कारण कि प्राकृत चर्मचक्षुओंसे यह विराट्रूप नहीं देखा जा सकता, जबकि 'विश्वमिदं तपन्तम्' (11। 19) और 'लोकत्रयं प्रव्यथितम्' पदोंसे विराट्रूपको देखकर त्रिलोकीके संतप्त और व्यथित होनेकी बात अर्जुनने कही है। इसका समाधान यह है कि संतप्त और व्यथित होनेवाली त्रिलोकी भी उस विराट्रूपके अन्तर्गत ही है अर्थात् विराट्रूपका ही अङ्ग है। सञ्जयने और भगवान्ने विराट्रूपको एक देशमें देखनेकी बात (एकस्थम्) कही, पर अर्जुनने एक देशमें देखनेकी बात नहीं कही। कारण कि विराट्रूप देखते हुए भगवान्के शरीरकी तरफ अर्जुनका खयाल ही नहीं गया। उनकी दृष्टि केवल विराट्रूपकी तरफ ही बह गयी। जब सारथिरूप भगवान्के शरीरकी तरफ भी अर्जुनकी दृष्टि नहीं गयी, तब संतप्त और व्यथित होनेवाले इस लौकिक संसारकी तरफ अर्जुनकी दृष्टि कैसे जा सकती है? इससे सिद्ध होता है कि संतप्त होनेवाला और संतप्त करनेवाला तथा व्यथित होनेवाला और व्यथित करनेवाला -- ये चारों उस विराट्रूपके ही अङ्ग हैं। अर्जुनको ऐसा दीख रहा है कि त्रिलोकी विराट्रूपको देखकर व्यथित, भयभीत हो रही है, पर वास्तवमें (विराट्रूपके अन्तर्गत) भयानक सिंह, व्याघ्र, साँप आदि जन्तुओंको और मृत्युको देखकर त्रिलोकी भयभीत हो रही है। मार्मिक बात देखने, सुनने और समझनेमें आनेवाला सम��पूर्ण संसार भगवान्के दिव्य विराट्रूपका ही एक छोटा-सा अङ्ग है। संसारमें जो जडता, परिवर्तनशीलता, अदिव्यता दीखती है, वह वस्तुतः दिव्य विराट्रूपकी ही एक झलक है, एक लीला है। विराट्रूपकी जो दिव्यता है, उसकी तो स्वतन्त्र सत्ता है, पर संसारकी जो अदिव्यता है, उसकी स्ववतन्त्र सत्ता नहीं है। अर्जुनको तो दिव्यदृष्टिसे भगवान्का विराट्रूप दीखा, पर भक्तोंको भावदृष्टिसे यह संसार भगवत्स्वरूप दीखता है --'वासुदेवः सर्वम्।' तात्पर्य है कि जैसे बचपनमें बालकका,कंकड़-पत्थरोंमें जो भाव रहता है, वैसा भाव बड़े होनेपर नहीं रहता; बड़े होनेपर कंकड़-पत्थर उसे आकृष्ट नहीं करते, ऐसे ही भोगदृष्टि रहनेपर संसारमें जो भाव रहता है, वह भाव भोगदृष्टिके मिटनेपर नहीं रहता।जिनकी भोगदृष्टि होती है, उनको तो संसार सत्य दीखता है, पर जिनकी भोगदृष्टि नहीं है, ऐसे महापुरुषोंको संसार भगवत्स्वरूप ही दीखता है। जैसे एक ही स्त्री बालकको माँके रूपमें, पिताको पुत्रीके रूपमें, पतिको पत्नीके रूपमें और सिंहको भोजनके रूपमें दीखती है, ऐसे ही यह संसार 'चर्मदृष्टि'से सच्चा, 'विवेकदृष्टि'से परिवर्तनशील, 'भावदृष्टि'से भगवत्स्वरूप और 'दिव्यदृष्टि'से विराट्रूपका ही एक छोटा-सा अङ्ग दीखता है।  सम्बन्ध--अब अर्जुनकी दृष्टिके सामने (विराट्रूपमें) स्वर्गादि लोकोंका दृश्य आता है और वे उसका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।11.20।। हे महात्मन् ! स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं; आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।11.20।।मातापित्रोरन्तरङ्गः स एकः? रूपेण चान्यैः सर्वगतः स एकः इति वारुणश्रुतेरेकेनैव द्यावापृथिव्योरन्तरं व्याप्तो भवति।पश्य मे पार्थ रूपाणि [1।6।18] इति बहूनि रूपाणि प्रतिज्ञातानि मातापितरौ च पृथिवीद्यावौ। मा नो माता पृथिवी दुर्मतौ धात् मधु द्यौरस्तु नः पिता [ऋक्सं.बृ.उ.6।3।6] इत्यादिप्रयोगात्। न तु नियमतो भयप्रदं तत्स्वरूपम्। नारदस्य तदभावात्। केषाञ्चित्तथा दर्शयति भगवान् -- प्रियन्ति केचित्तस्य रूपस्य दृष्टौ बिभेति कश्चिदभ्यसे सर्वतृप्तिः इति वारुणशाखायाम्। न तु तं सर्वे पश्यन्ति। अदृष्ट्वाऽपि तान्निरूप्य भयेन द्रष्टुस्तथा प्रतिभाति। तथा च गौतमखिलेषु -- दृष्ट्वा देवं मोदमाना अदृष्ट्वाऽप्येतद्भयाद्बिभ्यतो दृष्टवत्ते। पश्यन्ति ते न्यस्तचक्षुर्मुखांस्तु तस्मिन्नेवैते मनसो गतत्वात् इति।

Sri Anandgiri

।।11.20।।प्रकृतभगवद्रूपस्य व्याप्तिं व्यनक्ति -- द्यावापृथिव्योरिति। तस्यैव भयंकरत्वमाचष्टे -- दृष्ट्वेति।

Sri Vallabhacharya

।।11.20।।द्यावापृथिव्योः इत्यारभ्यचूर्णितैरुत्तमाङ्गैः [11।27] इत्यन्तं स्पष्टार्थम्।

Sridhara Swami

।।11.20।।किंच -- द्यावापृथिव्योरिति। द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि अन्तरिक्षं त्वयैकेन व्याप्तम्। दिशश्च सर्वा व्याप्ताः। अद्भुतमदृष्टपूर्वं त्वदीयमिदमुग्नं घोरं रूपं दृष्ट्वा लोकत्रयं प्रव्यथितमतिभीतं पश्यामीति पूर्वस्यैवानुषङ्गः।

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