Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 9 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||१०-९||
Transliteration
maccittā madgataprāṇā bodhayantaḥ parasparam . kathayantaśca māṃ nityaṃ tuṣyanti ca ramanti ca ||10-9||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.9 With their mind and their life wholly absorbed in Me, enlightening each other and ever speaking of Me, they are satisfied and delighted.
।।10.9।। मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach your work with complete dedication and focus, viewing your tasks as an offering or a path to mastery. Actively collaborate with colleagues, sharing knowledge and insights to elevate collective understanding and performance, finding deep satisfaction in purposeful creation and mutual growth.
🧘 For Stress & Anxiety
Shift your mental focus from external stressors to an inner anchor or higher purpose. Engage in practices that absorb your mind fully (e.g., mindfulness, deep creative work, spiritual study), and share uplifting conversations with supportive peers to cultivate inner peace and delight, reducing anxiety rooted in external circumstances.
❤️ In Relationships
Cultivate relationships based on shared higher values, mutual growth, and meaningful dialogue. Engage in conversations that uplift, enlighten, and encourage each other's personal and spiritual journey, fostering deep connections and shared joy beyond superficial interactions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate wholehearted devotion to a higher purpose and share that wisdom with others to discover profound inner satisfaction and lasting joy.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.9 मच्चित्ताः with their minds wholly in Me? मद्गतप्राणाः with their life absorbed in Me? बोधयन्तः,enlightening? परस्परम् mutually? कथयन्तः speaking of? च and? माम् Me? नित्यम् always? तुष्यन्ति are satisfied? च and? रमन्ति (they) are delighted? च and.Commentary The characteristics of a devotee who has attained the realisation of oneness are described in this verse. The devotee constantly thinks of the Lord. His very life is absorbed in Him. He has consecrated his whole life to the Lord. According to another interpretation? all his senses (which function because of the Prana)? such as the eye are absorbed in Him. He takes immense delight in talking about Him? about His supreme wisdom? power? might and other attributes. He has completely dedicated himself to the Lord.He feels intense satisfaction and is delighted as if he is in the company of his Beloved (God). The Purana says? The sum total of the sensual pleasures of this world and also all the great pleasures of the divine regions (heavens) are not worth a sixteenth part of that bliss which proceeds from the eradication of desires and cravings. (Cf.XII.8)
Shri Purohit Swami
10.9 With minds concentrated on Me, with lives absorbed in Me, and enlightening each other, they ever feel content and happy.
Dr. S. Sankaranarayan
10.9. Having their mind fixed on Me, their life gone into Me, enlightening each other, and constantly talking of Me, they are pleased and are delighted.
Swami Adidevananda
10.9 With their minds focussed on Me, with their Pranas centred in Me, inspiring one another and always speaking of Me, they live in contentment and bliss at all times.
Swami Gambirananda
10.9 With minds fixed on Me, with lives dedicated to Me, enlightening each other, and always speaking of Me, they derive satisfaction and rejoice.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.9।। जब मन सुगठित और एकाग्र होता है? तभी साधक उस मन के द्वारा परमात्मा का ध्यान सफलतापूर्वक कर सकता है। ध्येय से भिन्न विषय का विचार उठने पर यह एकाग्रता भंग हो जाती है। विद्युत् के सभी उपकरणों में विद्युत् शक्ति देखने? अथवा मिट्टी से बने घटों में मिट्टी को पहचानने में हमें कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती अथवा कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता? क्योंकि उनका हमें दृढ़ ज्ञान होता है। इसी प्रकार? एक बार निश्चयात्मक रूप से यह जान लेने पर कि ईश्वर और जीव का वास्तविक स्वरूप एक चैतन्य आत्मा ही है? मन में किसी भी प्रकार की वृत्ति उठने पर भी सत्य के साधक को इस आत्मा का भान बनाये रखने में कोई कठिनाई नहीं होती। इस्ा आशय को यहाँ मच्चिता इस शब्द से स्पष्ट किया गया है।समस्त प्राणों अर्थात् इन्द्रियों को मुझमें अर्पित करके (मद्गतप्राणा) प्राण शब्द से केवल प्राणवायु से ही तात्पर्य नहीं समझना चाहिए। प्राणियों के शरीर में होने वाली पाचनादि क्रियाओं को प्राण शब्द से दर्शाया जाता है। किन्तु यहाँ इस शब्द का प्रयोग मुख्यत पाँच ज्ञानेन्द्रियों को सूचित करने के लिए किया गया है। ये इन्द्रियाँ ही वे पाँच द्वार या वातायन हैं? जिनके द्वारा मन बाह्य विषयों में विचरण करता है और इनके माध्यम से ही जगत् के विषय मन में प्रवेश करते हैं। वेदान्त कभी भी इन विषयों से पलायन का उपदेश नहीं देता। इस जगत् में जीते हुए विषयों से पलायन कदापि सम्भव नहीं हो सकता। ज्ञानमार्ग विवेकपूर्ण विचार का मार्ग है। इसमें विवेक के द्वारा मन को इस प्रकार संयमित और प्रशिक्षित किया जाता है कि जब कभीभी बाह्य विषय मन पर अपना प्रभाव डालते हैं? तत्काल ही साधक को अपने उस आत्मस्वरूप का स्मरण हो जाता है? जिसके बिना वे विषय कभी प्रकाशित नहीं हो सकते थे।परस्पर चर्चा करते हुए किसी एक विषय में समान बौद्धिक रुचि के विद्यार्थीगण जब आपस में उस विषय की चर्चा करते हैं? तब न केवल वे अपने ज्ञान को स्पष्टत व्यक्त करते हैं? वरन् इस प्रक्रिया में उनका ज्ञान दृ88ढ़ निश्चयात्मक रूप भी ले लेता है जो प्रारम्भ में केवल पुस्तकीय ज्ञान ही था। परिसंवाद की इस सर्वविदित पद्धति का वेदान्त में अथक रूप से अनुमोदन एवं उपदेश दिया गया है। वेदान्त में इसका नाम है ब्रह्माभ्यास जो साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।अध्यात्म का सच्चा साधक वही है? जो अपने मन और इन्द्रियों की सभी प्रकार की क्रियाओं में आत्मा का स्मरण बनाये रखता है। इसका एक उपाय है आत्म विषय में अन्य साधकजनों के साथ चर्चा एवं निदिध्यासन। ऐसे साधक साधना के फलस्वरूप उस परम आनन्द को प्राप्त करते हैं? जो उनके जीवन रथ के चक्रों के लिए पथरीले मार्ग पर सरलता से अग्रसर होने के लिए चिकने तेल का काम करता है और यात्रा को सुगम बना देता है। तुष्यन्ति और रमन्ति के भाव को ही उपनिषदों में सुन्दर प्रकार से क्रीडन्ति और रमन्ति शब्दों के द्वारा इंगित किया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं कि पूर्णत्व का साधक जब विचार मार्ग पर अग्रसर होता है तब उसी समय उसे सन्तोष और रमण का अनुभव होता है। सन्तोष और आनन्द से मन में ऐसा सुन्दर वातावरण निर्मित होता है? जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यन्त अनुकूल बनकर साधक की सफलता निश्चित कर देता है। सदैव असन्तुष्ट? शोक मनाने वाले मानसिक स्तब्धता और बौद्धिक दरिद्रता का चित्र प्रस्तुत करने वाले साधक कदापि अपने इस परम आनन्दस्वरूप में प्रवेश नहीं कर सकते हैं।प्रगति की इस सीमा तक पहुँचने पर साधकों को कहाँ से मार्गदर्शन और बल मिलता है जिससे वे अपनी यात्रा के लक्ष्य तक पहुँचते हैं इसका उत्तर है --
Swami Ramsukhdas
।।10.9।। व्याख्या--[भगवान्से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान्से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा है -- यह बात जिनको दृढ़तासे और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है, उनके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस, उनका एक ही काम रहता है -- सब प्रकारसे भगवान्में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोकमें बतायी गयी है।] 'मच्चिताः' -- वे मेरेमें चित्तवाले हैं। एक स्वयंका भगवान्में लगना होता है और एक चित्तको भगवान्में लगाना होता है। जहाँ मैं भगवान्का हूँ ऐसे स्वयं भगवान्में लग जाता है, वहाँ चित्त, बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान्में लग जाते हैं। कारण कि कर्ता(स्वयं) के लगनेपर करण (मन, बुद्धि आदि) अलग थोड़े ही रहेंगे वे भी ��ग जायँगे। करणोंके लगनेपर तो कर्ता अलग रह सकता है, पर कर्ताके लगनेपर करण अलग नहीं रह सकते। जहाँ कर्ता रहेगा, वहीं करण भी रहेंगे। कारण कि करण कर्ताके ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है, करण भी वहीँ लगते हैं। जैसे, कोई मनुष्य परमात्मप्राप्तिके लिये सच्चे हृदयसे साधक बन जाता है, तो साधनमें उसका मन स्वतः लगता है। उसका मन साधनके सिवाय अन्य किसी कार्यमें नहीं लगता और जिस कार्यमें लगता है? वह कार्य भगवान्का ही होता है। कारण कि स्वयं कर्ताके विपरीत मनबुद्धि आदि नहीं चलते। परन्तु जहाँ स्वयं भगवान्में नहीं लगता, प्रत्युत मैं तो संसारी हूँ, मैं तो गृहस्थ हूँ -- इस प्रकार स्वयंको संसारमें लगाकर चित्तको भगवान्में लगाना चाहता है, उसका चित्त भगवान्में निरन्तर नहीं लगता। तात्पर्य है कि स्वयं तो संसारी बना रहे और चित्तको भगवान्में लगाना चाहे, तो भगवान्में चित्त लगना असम्भवसा है। दूसरी बात, चित्त वहीं लगता है, जहाँ प्रियता होती है। प्रियता वहीं होती है, जहाँ अपनापन होता है, आत्मीयता होती है। अपनापन होता है -- भगवान्के साथ स्वयंका सम्बन्ध जोड़नेसे। मैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं, शरीरसंसार मेरा नहीं है। मेरेपर प्रभुका पूरा अधिकार है, इसलिये वे मेरे प्रति चाहे जैसा बर्ताव या विधान कर सकते हैं। परन्तु मेरा प्रभुपर कोई अधिकार नहीं है अर्थात् वे मेरे हैं तो मैं जैसा चाहूँ, वे वैसा ही करें -- ऐसा कोई अधिकार नहीं है -- इस प्रकार जो स्वयंको भगवान्का मान लेता है, अपनेआपको भगवान्के अर्पित कर देता है, उसका चित्त स्वतः भगवान्में लग जाता है। ऐसे भक्तोंको ही यहाँ 'मच्चित्ताः' कहा गया है। यहाँ 'मच्चित्ताः' पदमें चित्तके अन्तर्गत ही मन है अर्थात् मनोवृत्ति अलग नहीं है। गीतामें चित्त और मनको एक भी कहा है और अलगअलग भी जैसे 'भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च' (7। 4) -- यहाँ मनके अन्तर्गत ही चित्त है और 'मनः संयम्य मच्चितः' (6। 14) -- यहाँ मन और चित्त अलगअलग हैं। परन्तु इस श्लोकमें आये 'मच्चित्ताः' पदमें मन और चित्त एक ही हैं, दो नहीं। 'मद्गतप्राणाः' -- उनके प्राण मेरे ही अर्पण हो गये हैं। प्राणोंमें दो बाते हैं -- जीना और चेष्टा। उन भक्तोंका जीना भी भगवान्के ही लिये है और शरीरकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ (क्रियाएँ) भी भगवान्के लिये ही हैं। शरीरकी जितनी क्रियाएँ होती हैं, उनमें प्राणोंकी ही मुख्यता होती है। अतः उन भक्तोंकी यज्ञ, अनुष्ठान आदि शास्त्रीय भजनध्यान, कथाकीर्तन आदि भगवत्सम्बन्धी खानापीना आदि शारीरिक खेती, व्यापार आदि जीविकासम्बन्धी सेवा आदि सामाजिक आदि-आदि जितनी क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान्के लिये ही होती हैं। उनकी क्रियाओँमें क्रियाभेद तो होता है, पर उद्देश्यभेद नहीं होता। उनकी मात्र क्रियाएँ एक भगवान्के उद्देश्यसे ही होती हैं। इसलिये वे भगवद्गतप्राण होते हैं। जैसे गोपिकाओंने गोपीगीत में भगवान्से कहा है कि हमने अपने प्राणोंको आपमें अर्पण कर दिया है --'त्वयि धृतासवः' (श्रीमद्भा0 10। 31। 1), ऐसे ही भक्तोंके प्राण केवल भगवान्में रहते हैं। उनका जितना भगवान्से अपनापन है, उतना अपने प्राणोंसे नहीं। हरेक प्राणीमें किसी भी अवस्थामें मेरे प्राण न छूटें इस तरह जीनेकी इच्छा रहती है। यह प्राणोंका मोह है, स्नेह है। परन्तु भगवान्के भक्तोंका प्राणोंमें मोह नहीं रहता। उनमें हम जीते रहें यह इच्छा नहीं होती और मरनेका भय भी नहीं होता। उनको न जीनेसे मतलब रहता है और न मरनेसे। उनको तो केवल भगवान्से मतलब रहता है। कारण कि वे इस बातको अच्छी तरहसे जान जाते हैं कि मरनेसे तो प्राणोंका वियोग होता है, भगवान्से तो कभी वियोग होता ही नहीं। प्राणोंके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, पर भगवान्के साथ हमारा स्वतःसिद्ध घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राण प्रकृतिके कार्य हैं और हम स्वयं भगवान्के अंश हैं।ऐसे 'मद्गतप्राणाः' होनेके लिये साधकको सबसे पहले यह उद्देश्य बनाना चाहिये कि हमें तो भगवत्प्राप्ति ही करनी है। सांसारिक चीजें प्राप्त हों या न हों, हम स्वस्थ रहें या बीमार, हमारा आदर हो या निरादर, हमें सुख मिले या दुःख-- इनसे हमारा कोई मतलब नहीं है। हमारा मतलब तो केवल भगवान्से है। ऐसा दृढ़ उद्देश्य बननेपर साधक भगवद्गतप्राण हो जायगा। 'बोधयन्तः परस्परम्'-- उन भक्तोंको भगवद्भाववाले, भगवद्रुचिवाले मिल जाते हैं तो उनके बीच भगवान्की बात छिड़ जाती है। फिर वे आपसमें एक-दूसरेको भगवान्के तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव आदि जनाते हैं तो एक विलक्षण सत्सङ्ग होता है (टिप्पणी प0 546.1)। जब वे आपसमें भावपूर्वक बातें करते हैं, तब उनके भीतर भगवत्सम्बन्धी विलक्षण-विलक्षण बातें स्वतः आने लगती हैं। जैसे दीपकके नीचे अँधेरा रहता है, पर दो दीपक एकदूसरेके सामने रख दें तो दोनों दीपकोंके नीचेका अँधेरा दूर हो जाता है। ऐसे ही जब दो भगवद्भक्त एक साथ मिलते हैं और आपसमें भगवत्सम्बन्धी बातें चल पड़ती हैं, तब किसीके मनमें किसी,तरहका भगवत्सम्बन्धी विलक्षण पैदा होता है तो वह उसे प्रकट कर देता है तथा दूसरेके मनमें और तरहका भाव पैदा होता है तो वह भी उसे प्रकट कर देता है। इस प्रकार आदान-प्रदान होनेसे उनमें नये-नये भाव प्रकट होते रहते हैं। परन्तु अकेलेमें भगवान्का चिन्तन करनेसे उतने भाव प्रकट नहीं होते। अगर भाव प्रकट हो भी जायँ तो अकेले अपने पास ही रहते हैं, उनका आदान-प्रदान नहीं होता। 'कथयन्तश्च माम्'-- उनको भगवान्की कथा-लीला सुननेवाला कोई भगवद्भक्त मिल जाता है, तो वे भगवान्की कथालीला कहना शुरू कर देते हैं। जैसे सनकादि चारों भगवान्की कथा कहते हैं और सुनते हैं। उनमें कोई एक वक्ता बन जाता है और तीन श्रोता बन जाते हैं। ऐसे ही भगवान्के प्रेमी भक्तोंको कोई सुननेवाला मिल जाता है तो वे उसको भगवान्की कथा, गुण, प्रभाव, रहस्य आदि सुनाते हैं और कोई सुनानेवाला मिल जाता है तो स्वयं सुनने लग जाते हैं। परन्तु उनमें सुनाते समय 'वक्ता' बननेका अभिमान नहीं होता और सुनते समय 'श्रोता' बननेकी लज्जा नहीं होती।'नित्यं तुष्यन्ति च'-- इस तरह भगवान्की कथा, लीला, गुण, प्रभाव, रहस्य आदिको आपसमें एकदूसरेको जनाते हुए और उनका ही कथन तथा चिन्तन करते हुए वे भक्त नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं। तात्पर्य है कि उनकी सन्तुष्टिका कारण भगवान्के सिवाय दूसरा कोई नहीं रहता, केवल भगवान् ही रहते हैं। 'रमन्ति च'-- वे भगवान्में ही रमण अर्थात् प्रेम करते हैं। इस प्रेममें उनमें और भगवान्में भेद नहीं रहता --'तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्' (नारदभक्तिसूत्र 41)। कभी भक्त भगवान्का भक्त हो जाता है, तो कभी भगवान् अपने भक्तके भक्त बन जाते हैं (टिप्पणी प0 546.2)। इस तरह भगवान् और भक्तमें परस्पर प्रेमकी लीला अनन्तकालतक चलती ही रहती है, और प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है।इस वर्णनसे साधकको इस बातकी तरफ ध्यान देना चाहिये कि उसकी हरेक क्रिया, भाव आदिका प्रवाह केवल भगवान्की तरफ ही हो। सम्बन्ध --पूर्वश्लोकमें भक्तोंके द्वारा होनेवाले भजनका प्रकार बताकर अब आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् उनपर विशेष कृपा करनेकी बात बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।10.9।। मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।
Sri Anandgiri
।।10.9।।न केवमुक्तमेव भगवद्भजने साधनां साधनान्तरं चास्तीत्याह -- किञ्चेति। ईश्वरात्प्रतीचः प्रागुक्तादन्यत्र चित्तप्रचारराहित्यं भगवद्भजनोपायमाह -- मयीति। चक्षुरादीनां भगवत्यप्राप्तिस्तदगोचरत्वात्तस्येत्याशङ्क्याह -- मय्युपसंहृतेति। भगवदतिरेकेण जीवनेऽपि नादरस्तदपि मय्येवार्पितं भक्तानामित्याह -- अथवेति। आचार्येभ्यः श्रुत्वा वादकथया परस्परं भगवन्तं सब्रह्मचारिणो बोधयन्ति तदपि भगवद्भजनसाधनमित्याह -- बोधयन्त इति। आगमोपपत्तिभ्यां भगवन्तमेव विशिष्टधर्माणं शिष्येभ्यो गुरवो व्यपदिशन्ति तदपि भगवद्भजनमेवेत्याह -- कथयन्त इति। भक्तानां तुष्टिरती स्वरसतः स्यातामित्याह -- तुष्यन्तीति। मनोरथपूर्त्या रतिप्राप्तौ कामुकसंमतमुदाहरणमाह -- प्रियेति।
Sri Vallabhacharya
।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददामि येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।
Sridhara Swami
।।10.9।। प्रीतिपूर्वकं भजनमेवाह -- मच्चित्ता इति। मय्येव चित्तं येषां ते मच्चित्ताः। मामेव गताः प्राप्ताः प्राणा इन्द्रियाणि येषां ते मद्गतप्राणाः मदर्पितजीवना इति वा। एवंभूतास्ते बुधाः अन्योन्यं मां न्यायोपेतैः श्रुत्यादिप्रमाणैर्बोधयन्तः? बुद्ध्या च मां कथयन्तः संकीर्तयन्तः सन्तो नित्यं तुष्यन्त्यनुमोदनेन तुष्टिं यान्ति। रमन्ति च निर्वृत्तिं यान्ति।