Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 36 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Omnipresence

Sanskrit Shloka (Original)

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् | जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ||१०-३६||

Transliteration

dyūtaṃ chalayatāmasmi tejastejasvināmaham . jayo.asmi vyavasāyo.asmi sattvaṃ sattvavatāmaham ||10-36||

Word-by-Word Meaning

द्यूतम्the gambling
छलयताम्of the fraudulent
अस्मि(I) am
तेजःsplendour
तेजस्विनाम्of the splendid
अहम्I
जयःvictory
अस्मि(I) am
व्यवसायःdetermination
अस्मि(I) am
सत्त्वम्the goodness
सत्त्ववताम्of the good

📖 Translation

English

10.36 I am the gambling of the fraudulent; I am the splendour of the splendid; I am victory; I am determination (of those who are determined); I am the goodness of the good.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।10.36।। मैं छल करने वालों में द्यूत हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ; मैं व्यवसाय (उद्यमशीलता) हूँ और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, recognize that your drive, determination, and pursuit of excellence are manifestations of divine energy. Strive for 'splendour' in your work and aim for 'victory' through diligent 'determination,' ensuring your 'goodness' (integrity and ethical conduct) guides all your actions. Even in competitive scenarios, understand the underlying power is divine; choose to wield it for constructive and virtuous ends.

🧘 For Stress & Anxiety

When facing stress or mental challenges, draw strength from the realization that 'determination' (व्यवसायः) is a divine quality inherent within you. Cultivate inner 'goodness' (सत्त्वम्) and dispassion (as mentioned in Sivananda's commentary for Sattva) to achieve mental clarity and peace, understanding that true victory over internal struggles comes from aligning with these higher virtues. The omnipresence of the Divine provides a grounding perspective, reducing anxiety about outcomes.

❤️ In Relationships

Apply 'determination' (व्यवसायः) to nurture and strengthen your relationships with empathy and commitment. Recognize the 'goodness' (सत्त्वम्) and 'splendour' (तेजः) in others as divine reflections, fostering appreciation and respect. While understanding that even manipulative tendencies ('gambling of the fraudulent') originate from an underlying universal power, consciously choose to interact with honesty and integrity, manifesting your highest self to build truly harmonious and virtuous connections.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The Divine is the animating essence and underlying power of all qualities, from determination and virtue to even the mechanisms of vice. Recognize this omnipresent force within and choose to manifest its highest forms for splendid success and profound goodness.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

10.36 द्यूतम् the gambling? छलयताम् of the fraudulent? अस्मि (I) am? तेजः splendour? तेजस्विनाम् of the splendid? अहम् I? जयः victory? अस्मि (I) am? व्यवसायः determination? अस्मि (I) am? सत्त्वम् the goodness? सत्त्ववताम् of the good? अहम् I.Commentary Of the methods of defrauding others I am gambling such as diceplay. Gambling is My manifestation. I am the power of the powerful. I am the victoyr of the victorious. I am the effort of those who make that effort.I am Sattva which assumes the forms of Dharma (virtue)? Jnana (knowledge)? Vairagya (dispassion)? and Aisvarya (wealth or lordship) in Sattvic persons.

Shri Purohit Swami

10.36 I am the Gambling of the cheat and the Splendour of the splendid; I am Victory; I am Effort; and I am the Purity of the pure.

Dr. S. Sankaranarayan

10.36. I am gambling of the fradulent; I am the brilliance of the brilliant; I am the victory; I am the resolution; I am the energy of the energetic.

Swami Adidevananda

10.36 Of the fraudulent, I am gambling. I am the brilliance of the brilliant. I am victory, I am effort. I am the magnanimity of the magnanimous.

Swami Gambirananda

10.36 Of the fraudulent I am the gambling; I am the irresistible ?nd of the mighty. I am excellene, I am effort, I am the sattva ality of those possessed of sattva.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।10.36।। मैं द्यूत हूँ गीता का उपदेश अपने समय के एक क्षत्रिय राजा योद्धा अर्जुन को दिया गया था। इसका उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने? धर्मप्रचारक के महान् उत्साह के साथ? अर्जुन को उसके अपने ही धर्म का बोध कराने के लिए किया था इसलिए गीता का प्रयत्न हिन्दुओं को ही हिन्दू बनाने का है? उन्हें स्वधर्म का पुनर्बोध कराने का है। यह पुनर्बोध का कार्य तब तक सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता जब तक हमारे धर्मशास्त्रों का मर्म सामान्य जनता को उसकी ही भाषा में समझाया नहीं जाता। यहाँ दिया हुआ उदाहरण अर्जुन को तत्क्षण ही समझ में आने जैसा है। कारण यह है कि उसका सम्पूर्ण जीवन दुखों की एक शृंखला थी? जिसे उसे सहन करना पड़ा था? केवल अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की द्यूत खेलने के व्यसन के कारण। कोई अन्य दृष्टान्त अर्जुन के लिए इतना सुबोध नहीं हो सकता था।आधुनिक पीढ़ी को सम्भवत यह उदाहरण इतना अधिक सुबोध न प्रतीत होता हो? क्योंकि अब द्यूत का खेल अधिक लोकप्रिय नहीं रहा है। किन्तु उसके स्थान पर अन्य उदाहरण सरलता से पहचाने जा सकते हैं।मैं तेजस्वियों का तेज हूँ विभूति के इस दृष्टान्त का उपयोग जो साधक ध्यानाभ्यास के लिए करना चाहेगा? उसे ज्ञात होगा कि यहाँ शास्त्र ने कुछ कहा ही नहीं है। तेजस्वी वस्तुओं का जो तेज है? उसमें उस वस्तु के गुण नहीं होते हैं। उस तेज में अपने स्वयं के गुण भी नहीं होते तेज केवल एक अनुभव है। इस अनुभव को सहज सुगम बनाने के लिए? मन उस वस्तु के परिमाण और वैभव को प्रकाशित करता है? परन्तु अनुभूति तेज में उस वस्तु के उपादान भूत पदार्थ के कुछ भी गुण नहीं होते। संक्षेप में जैसा कि श्रीरामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था निसन्देह सत्य एक प्रकाश है? परन्तु वह गुणरहित प्रकाश है।मैं विजय हूँ उद्यमशीलता हूँ और मैं साधुओं की साधुता हूँ जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है? यहाँ भी ये गुण मन की उस स्थिति या दशा को बताते हैं? जो इस प्रकार के निरन्तर चिन्तन से निर्मित होती है। जब उद्यमशीलता और साधुता जैसे गुणों को बनाये रखा जाता है? तब मन अत्यन्त शान्त और स्थिर हो जाता है जिसमें चैतन्य आत्मा का प्रतिबिम्वित वैभव इतना स्पष्टऔर तेजस्वी होता है कि मानो वही स्वयं सत्य है। अत पूर्वकथित गुणों की प्रत्यारोपण की भाषा में भगवान् कहते हैं कि ये गुण ही मैं हूँ? जबकि वस्तुत ये अन्तकरण के धर्म हैं।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ अनेकता में एक परमात्मा की विद्यमानता दर्शाने के लिए जो 54 उदाहरण दिये गये हैं? व�� सब एक निष्ठावान साधक को ध्यान के लिए बताये हुए अभ्यास हैं। यह कोई दृश्य पदार्थ का वर्णन नहीं समझना चाहिए। इन श्लोकों के तात्पर्यार्थ को जब तक साधक अपने निज के अनुभव से नहीं समझता? तब तक उसकी शिक्षा पूर्ण नहीं कही जा सकती।भगवान् और भी दृष्टान्त देते हुए कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।10.36।। व्याख्या--'द्यूतं छलयतामस्मि'--छल करके दूसरोंके राज्य, वैभव, धन, सम्पत्ति आदिका (सर्वस्वका) अपहरण करनेकी विशेष सामर्थ्य रखनेवाली जो विद्या है, उसको जूआ कहते हैं। इस जूएको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।  शङ्का--यहाँ भगवान्ने छल करनेवालोंमें जूएको अपनी विभूति बताया है तो फिर इसके खेलनमें क्या दोष है? अगर दोष नहीं है तो फिर शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है।  समाधान --'ऐसा करो और ऐसा मत करो'-- यह शास्त्रोंका विधि-निषेध कहलाता है। ऐसे विधि-निषेधका वर्णन यहाँ नहीं है। यहाँ तो विभूतियोंका वर्णन है। मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ?' -- अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान्ने विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बतायी है अर्थात् भगवान्का चिन्तन सुगमतासे हो जाय, इसका उपाय विभूतियोंके रूपमें बताया है। अतः जिस समुदायमें मनुष्य रहता है, उस समुदायमें जहाँ दृष्टि पड़े, वहाँ संसारको न देखकर भगवान्को ही देखे; क्योंकि भगवान् कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् मेरेसे व्याप्त है अर्थात् इस जगत्में मैं ही व्याप्त हूँ, परिपूर्ण हूँ (गीता 9। 4)।    जैसे किसी साधकका पहले जूआ खेलनेका व्यसन रहा हो और अब वह भगवान्के भजनमें लगा है। उसको कभी जूआ याद आ जाय तो उस जूएका चिन्तन छोड़नेके लिये वह उसमें भगवान्का चिन्तन करे कि इस जूएके खेलमें हार-जीतकी विशेषता है, वह भगवान्की ही है। इस प्रकार जूएमें भगवान्को देखनेसे जूएका चिन्तन तो छूट जायगा और भगवान्का चिन्तन होने लगेगा। ऐसे ही किसी दूसरेको जूआ खेलते देखा और उसमें हार-जीतको देखा, तो हराने और जितानेकी शक्तिको जूएकी न मानकर भगवान्की ही माने। कारण कि खेल तो समाप्त हो रहा है और समाप्त हो जायगा, पर परमात्मा उसमें निरन्तर रहते हैं और रहेंगे। इस प्रकार जुआ आदिको विभूति कहनेका तात्पर्य भगवान्के चिन्तनमें है (टिप्पणी प0 565.1)। जीव स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश है, पर इसने भूलसे असत् शरीर-संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। अगर यह संसारमें दीखनेवाली महत्ता, विशेषता, शोभा आदिको परमात्माकी ही मानकर परमात्माका चिन्तन करेगा तो यह परमात्माकी तरफ जायगा अर्थात् इसका उद्धार हो जायगा (गीता 8। 14); और अगर महत्ता, विशेषता, शोभा आदिको संसारकी मानकर संसारका चिन्तन करेगा तो यह संसारकी तरफ जायगा अर्थात् इसका पतन हो जायगा (गीता 2। 62 63)। इसलिये परमात्माका चिन्तन करते हुए परमात्माको तत्त्वसे जाननेके उद्देश्यसे ही इन विभूतियोंका वर्णन किया गया है। 'तेजस्तेजस्विनामहम्' (टिप्पणी प0 565.2) -- महापुरुषोंके उस दैवी-सम्पत्तिवाले प्रभावका नाम तेज है, जिसके सामने पापी पुरुष भी पाप करनेमें हिचकते हैं। इस तेजको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।'जयोऽस्मि' -- विजय प्रत्येक प्राणीको प्रिय लगती है। विजयकी यह विशेषता भगवान्की है। इसलिये विजयको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।अपने मनके अनुसार अपनी विजय होनेसे जो सुख होता है, उसका उपभोग न करके उसमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिये कि विजयरूपसे भगवान् आये हैं। 'व्यवसायोऽस्मि' -- व्यवसाय नाम एक निश्चयका है। इस एक निश्चयकी भगवान्ने गीतामें बहुत महिमा गायी है; जैसे -- कर्मयोगीकी निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है (2। 41) भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त पुरुषोंकी निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती (2। 44) अब तो मैं केवल भगवान्का भजन ही करूँगा -- इस एक निश्चयके बलपर दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्यको भी भगवान् साधु बताते हैं (9। 30)। इस प्रकार भगवान्की तरफ चलनेका जो निश्चय है, उसको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।निश्चयको अपनी विभूति बतानेका तात्पर्य है कि साधकको ऐसा निश्चय तो रखना ही चाहिये, पर इसको अपना गुण नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत ऐसा मानना चाहिये कि यह भगवान्की विभूति है और उन्हींकी कृपासे मुझे प्राप्त हुई है।   'सत्त्वं सत्त्ववतामहम्' -- सात्त्विक मनुष्योंमें जो सत्त्व गुण है, जो सात्त्विक भाव और आचरण है, वह भी भगवान्की विभूति है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुणको दबाकर जो सात्त्विक भाव बढ़ता है, उस सात्त्विक भावको साधक अपना गुण न मानकर भगवान्की विभूति माने।तेज, व्यवसाय, सात्त्विक भाव आदि अपनेमें अथवा दूसरोंमें देखनेमें आयें तो साधक इनको अपना अथवा किसी वस्तुव्यक्तिका गुण न माने, प्रत्युत भगवान्का ही गुण माने। उन गुणोंकी तरफ दृष्टि जानेपर उनमें तत्त्वतः भगवान्को देखकर भगवान्को ही याद करना चाहिये।

Swami Tejomayananda

।।10.36।। मैं छल करने वालों में द्यूत हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ; मैं व्यवसाय (उद्यमशीलता) हूँ और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।10.36।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।10.36।।द्यूतमुक्तलक्षणं सर्वस्वापहारकारणमन्यापदेशेन पराभिप्रेतं निघ्नतां स्वाभिप्रेतं वा संपादयतामित्याह -- छलस्येति। तेजोऽप्रतिहताज्ञा? उत्कर्षो जयः? व्यवसायः फलहेतुरुद्यमः? धर्मज्ञानवैराग्यादि सत्त्वकार्यं सत्त्वम्।

Sri Vallabhacharya

।।10.36।।द्यूतमिति। छलयतां सम्बन्धि धर्मद्यूतं छलमहम् यथा युधिष्ठिरे भगवत्सेवोपयोगिक्रीडासाधनेष्वक्षलक्षणेषु द्यूतं वा भगवद्विभूतिः। तत्र च तेजस्विनां मध्येऽहङ्काररूपं तेजो मद्विभूतिः। दासोऽस्मीति वा भागवतं वा तत् तत्र जयोऽपि चाहं रुक्मीकालिङ्गप्रसङ्गेऽक्षगोष्ठ्यां [भाग.10] बलभद्रनिष्ठः सत्यवागुदितो जयो मे विभूतिः। अन्योऽपि तथा भावनीयः व्यवसाय इत्यादिः।

Sridhara Swami

।।10.36।। द्यूतमिति। छलयतामन्योन्यवञ्चनपराणां संबन्धि द्यूतमस्मि। तेजस्विनां प्रभावतां तेजः प्रभावोऽस्मि। जेतृ़णां जयोऽस्मि। व्यवसायिनामुद्यमवतां व्यवसाय उद्यमोऽस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां सत्त्वमहम्।

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