Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 14 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव | न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ||१०-१४||
Transliteration
sarvametadṛtaṃ manye yanmāṃ vadasi keśava . na hi te bhagavanvyaktiṃ vidurdevā na dānavāḥ ||10-14||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.14 I believe all this that Thou sayest to me to be true, O Krishna; verily, O blessed Lord! neither the gods nor the demons know Thy manifestation (origin).
।।10.14।। हे केशव ! जो कुछ भी आप मेरे प्रति कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्, आपके (वास्तविक) स्वरूप को न देवता जानते हैं और न दानव।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, cultivate unwavering trust in the vision of a deeply experienced and wise leader, or fully accept the foundational principles of your field. Recognize that some complex organizational or market dynamics might be beyond immediate individual comprehension, and acting on trusted expert advice can lead to more effective action and less internal friction. This acceptance frees you from constantly second-guessing fundamental truths.
🧘 For Stress & Anxiety
Release the burden of needing to understand or control every single aspect of life. Cultivate faith in a larger order or purpose, acknowledging that many things are beyond personal grasp. This acceptance that certain ultimate realities are unknowable by conventional means can significantly reduce anxiety, mental strain, and the pressure of seeking absolute control or knowledge, fostering a deeper sense of peace.
❤️ In Relationships
Build relationships on a foundation of profound trust, believing in the core integrity and truthfulness of a partner's words and intentions. Accept that you may never fully comprehend the entirety of another person's inner world, past experiences, or complex motivations. This humble acceptance fosters empathy, reduces judgment based on incomplete understanding, and strengthens bonds based on faith rather than exhaustive knowledge.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate unwavering trust in profound truth or a wise source; humbly accepting that some ultimate realities transcend our conventional understanding brings clarity, peace, and the ability to act with conviction.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.14 सर्वम् all? एतत् this? ऋतम् true? मन्ये (I) think? यत् which? माम् to me? वदसि (Thou) sayest? केशव O Krishna? न not? हि verily? ते Thy? भगवन् O blessed Lord? व्यक्तिम् manifestation? विदुः know? देवाः gods? न not? दानवाः demons.Commentary Bhagavan is He? in whom ever exist the six attributes in their fullness? viz.? Jnana (wisdom)? Vairagya (dispassion)? Aisvarya (lordship)? Dharma (virtue)? Sri (wealth) and Bala (omnipotence). Also? He Who knows the origin? dissolution and the future of all beings and Who is omniscient? is called Bhagavan.Vyakti Origin.Danavah Demons or the Titans.Arjuna addresses the Lord as Keshava (Lord of all) because the Lord knows what is going on in his mind? as He is omniscient. As the Lord is the source of the gods? the demons and others? they cannot comprehend His manifestation or origin. (Cf.IV.6)
Shri Purohit Swami
10.14 I believe in what Thou hast said, my Lord! For neither the godly not the godless comprehend Thy manifestation.
Dr. S. Sankaranarayan
10.14. What You tell me, I take all to be true, O Kesava ! For, O Bhagavat, neither the gods nor the great seers know Your manifestation.
Swami Adidevananda
10.14 I deem as true all this that you say to Me, O Krsna. Verily O Lord, neither the gods nor the demons know Your manifestation.
Swami Gambirananda
10.14 O Kesava, I accept to be true all this which You tell me. Certainly, O Lord, neither the gods nor the demons comprehend Your glory.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.14।। यहाँ अर्जुन अपने मन के भावों को स्पष्ट करते हुए गुरु के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा को भी व्यक्त करता है जो कुछ आप मेरे प्रति कहते हैं उसे मैं सत्य मानता हूँ। केशव शब्द का अर्थ है जिनके केश सुन्दर हैं अथवा केशि नामक असुर का वध करने वाले। यद्यपि वह श्रीकृष्ण के कथन को सत्य मानता है? परन्तु वह उनके सम्पूर्ण आशय को ग्रहण नहीं कर पाता। तात्पर्य यह है कि उसे हृदय से भगवान के वचनों में पूर्ण विश्वास है? किन्तु उसकी बुद्धि अभी भी असन्तुष्ट ही है।ज्ञानपिपासा के वशीभूत अर्जुन का असन्तुष्ट व्यक्तित्व मानो कराहता है । यह ज्ञानपिपासा दूसरी पंक्ति में प्रतिध्वनित होती है जहाँ वह कहता है आपके व्यक्तित्व को न देवता जानते है और न दानव। दानव दनु के पुत्र थे? जो प्राय स्वर्ग पर आक्रमण करते रहते थे? यज्ञयागादि में बाधा पहुँचाते थे और आसुरी जीवन जीते थे। इसके विपरीत? पुराणों के वर्णनानुसार? देवतागण स्वर्ग के निवासी हैं जो र्मत्य मानवों की अपेक्षा शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं में अधिक शक्तिशाली होते हैं।वैयक्तिक दृष्टि से? देव और दानव हमारे मन की क्रमश शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। जब अर्जुन कहता है कि आत्मा के स्वरूप का निर्धारण न तो सूक्ष्म और शुभ के दर्शन के समान हो सकता है? और न ही दानवी प्रवृत्ति के समान? तब उसकी निराशा स्पष्ट झलकती है। न तो हमारी दैवी प्रवृत्तियां सत्य का आलिंगन कर सकती हैं? और न ही दानवी गुण उसको युद्ध के लिए आह्वान करके शत्रु रूप में हमारे सामने ला सकते हैं। जगत् में हम वस्तुओं या व्यक्तियों को केवल दो रूप में मिलते हैं प्रिय और अप्रिय अथवा मित्र और शत्रु के रूप में। आत्मा के व्यक्तित्व की पहचान इन दोनों ही प्रकारों से नहीं हो सकती? क्योंकि वह योग और विभूति की अभिव्यक्तियों में द्रष्टा है।यदि सत्य को कोई नहीं जान सकता है? तो फिर अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से उसका वर्णन करने का अनुरोध क्यों करता है उनमें ऐसा कौन सा विशेष गुण है? जिसके कारण वे उस वस्तु का वर्णन करने में समर्थ हैं? जिसे अन्य कोई जान भी नहीं पाता है
Swami Ramsukhdas
।।10.14।। व्याख्या --'सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव '-- क नाम ब्रह्माका है, 'अ' नाम विष्णुका है, 'ईश' नाम शंकरका है और 'व' नाम वपु अर्थात् स्वरूपका है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर जिसके स्वरूप हैं, उसको 'केशव' कहते हैं। अर्जुनका यहाँ 'केशव' सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप ही,संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं। सातवेंसे नवें अध्यायतक मेरे प्रति आप 'यत्' -- जो कुछ कहते आये हैं, वह सब मैं सत्य मानता हूँ; और,'एतत्' -- अभी दसवें अध्यायमें आपने जो विभूति तथा योगका वर्णन किया है, वह सब भी मैं सत्य मानता हूँ। तात्पर्य है कि आप ही सबके उत्पादक और संचालक हैं। आपसे भिन्न कोई भी ऐसा नहीं हो सकता। आप ही सर्वोपरि हैं। इस प्रकार सबके मूलमें आप ही हैं-- इसमें मेरेको कोई सन्देह नहीं है।भक्तिमार्गमें विश्वासकी मुख्यता है। भगवान्ने पहले श्लोकमें अर्जुनको परम वचन सुननेके लिये आज्ञा दी थी, उसी परम वचनको अर्जुन यहाँ 'ऋतम्' अर्थात् सत्य कहकर उसपर विश्वास प्रकट करते हैं। 'न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः' -- आपने (गीता 4। 5 में) कहा है कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। इसी प्रकार आपने ( 10। 2 में) कहा है कि मेरे प्रकट होनेको देवता और महर्षि भी नहीं जानते। अपने प्रकट होनेके विषयमें आपने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। कारण कि मनुष्योंकी अपेक्षा देवताओंमें जो दिव्यता है, वह दिव्यता भगवत्तत्त्वको जाननेमें कुछ भी काम नहीं आती। वह दिव्यता प्राकृत-- उत्पन्न और नष्ट होनेवाली है। इसलिये वे आपके प्रकट होनेके तत्त्वको, हेतुको पूरा-पूरा नहीं जान सकते। जब देवता भी नहीं जान सकते, तो दानव जान ही कैसे सकते हैं? फिर भी यहाँ 'दानवाः' पद देनेका तात्पर्य यह है कि दानवोंके पास बहुत विलक्षण-विलक्षण माया है, जिससे वे विचित्र प्रभाव दिखा सकते हैं। परन्तु उस माया-शक्तिसे वे भगवान्को नहीं जान सकते। भगवान्के सामने दानवोंकी माया कुण्ठित हो जाती है। कारण कि प्रकृति और प्रकृतिकी जितनी शक्तियाँ हैं, उन सबसे भगवान् अतीत हैं। भगवान् अनन्त हैं, असीम हैं और दानवोंकी माया-शक्ति कितनी ही विलक्षण होनेपर भी प्राकृत, सीमित और उत्पत्ति-विनाशशील है। सीमित और नाशवान् वस्तुके द्वारा असीम और अविनाशी तत्त्वको कैसे जाना जा सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य, देवता, दानव आदि कोई भी अपनी शक्तिसे, सामर्थ्यसे, योग्यतासे, बुद्धिसे भगवान्को नहीं जान सकते। कारण कि मनुष्य आदिमें जितनी जाननेकी योग्यता, सामर्थ्य, विशेषता है, वह सब प्राकृत है और भगवान् प्रकृतिसे अतीत हैं। त्याग, वैराग्य, तप, स्वाध्याय आदि अन्तःकरणको निर्मल करनेवाले हैं, पर इनके बलसे भी भगवान्को नहीं जान सकते। भगवान्को तो अनन्यभावसे उनके शरण होकर उनकी कृपासे ही जान सकते हैं। (गीता 10। 11 11। 54)।
Swami Tejomayananda
।।10.14।। हे केशव ! जो कुछ भी आप मेरे प्रति कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्, आपके (वास्तविक) स्वरूप को न देवता जानते हैं और न दानव।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्म परिपूर्णम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म ৷৷. बृहद्बृहत्या बृंहयति [अ.शिर.4] इति च श्रुतिः। बृह बृहि वृद्धाविति पठन्ति।परमं यो महद्ब्रह्म [म.भा.13।149।9] इति च। विविधमासीदिति विभुः। तथा हि वारुणशाखायाम् -- विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतः [ऋक्सं.2।7।2।5] इति स ह्येव प्रभावाद्विविधोऽभवत् इति। सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6] इत्यादेश्च।
Sri Anandgiri
।।10.14।।ऋषिभिस्त्वया चोक्तत्वादुक्तं सर्वं सत्यमेवेति मम मनीषेत्याह -- सर्वमिति। किं तदित्याशङ्क्यात्मरूपमित्याह -- यन्मामिति। देवादिभिः सर्वैरुच्यमानतया त्वद्रूपे विशिष्टवक्तृग्रहणमनर्थकमित्याशङ्क्याह -- नहीति। प्रभवो नाम प्रभावो निरुपाधिकस्वभावः? यदा देवादीनामपि दुर्विज्ञेयं तव रूपं तदा का कथा मनुष्याणामित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।10.12 -- 10.14।।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवतो योगप्रभावं तादृशविभूतिहेतुत्वं स्वानन्यजनकात्मत्वं च निशम्य तद्विस्तारं ज्ञातुकामो भगवन्तं स्तुवन् अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्मेति सप्तभिः धर्मधर्म्यभिप्रायेण। इदं च सर्वं श्रुतेरिव प्रतिवाक्यभूतं भवान् परं ब्रह्मेत्यादि। त्वामेवाहुः सर्वे ऋषयः? तथा महाभगवदीयो मर्यादापुष्टिभक्तः देवर्षिर्नारदः आह असितो देवलो व्यासश्च -- एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य,ह्यागतो मधुरां पुरीम् [म.भा.3।88।24] इति भारते।कृष्ण एव हि भूतानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् इत्यादीनि भूयांसि महर्षिवचनानि श्रूयन्ते। भागवते [10।37।10] देवर्षिवचनं -- कृष्ण कृष्ण प्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर इत्यादि। स्वयं च ब्रवीषिअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इत्यादि। पुरुषोत्तम एव स्वमुखेन स्वस्वरूपं स्वमाहात्म्यं च वदति? नान्य इति। तदेतत्सर्वोक्तत्वात्सत्यमेव मन्ये यन्मां त्वं च वदसि। अतो भगवन् षडगुणपूण ज्ञानं त्वय्येव गुणः त्वद्दत्तमेवान्यत्रोद्भवतीति नान्ये देवा दानवाश्च ते व्यक्तिं अनन्यसाधारणं योगप्रभावं तत्तद्विभूतिरूपां व्यक्तिं च ते विदुः।
Sridhara Swami
।।10.14।। अतो ममेदानीं त्वदैश्वर्येऽसंभावना निवृत्तेत्याह -- सर्वमिति। एतद्भवानेव परं ब्रह्मेत्यादि सर्वमप्यृतं सत्यं मन्ये यन्मां प्रति त्वं कथयसिन मे विदुः सुरगणा इत्यादि तदपि सत्यमेव मन्य इत्याह -- न हीति। हे भगवन्? तव व्यक्तिं देवा न विदुः। अस्मदनुग्रहार्थमियमभिव्यक्तिरिति न जानन्ति। दानवाश्चास्मन्निग्रहार्थमिति न विदुरेवेति।